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६६ :: तुलसी चौरा
 

'जल्दबाजी में सीधे-सीधे कुछ मत कह बैठना बिटिया। काकी को अपने भ्रम में ही कुछ दिन जी लेने दो वरना घर में कलह मच जाएगा। वह अपने आप बात को समझे यही उचित है। उसे बात को समझने में जितना वक्त लगेगा, हमें इनों दिनों तक तो शांति मिलेगी!' पार्मा जी ने कहा।

वेणुकाका और बसंती ने रवि और कमली के रिश्ते को ले कर जिस सहजता से बातचीत की शर्मा जी उसे उसी सहजता से नहीं ले पाये। पता नहीं कितनी शंकाएं――चिताएँ उन्हें घेरने लगी थीं।

उस रात रवि और कमली को अपने घर रात्रि भोजन के लिए वेणुकाका ने बुलवा लिया।

'आप भी आइए न!' वेणुकाका ने शर्मा जी को भी आमंत्रित किया। उन्होंने औपचारिकतावश ही बुलाया था। वे जानते थे शर्मा जी आने से रहे।

'आप क्या हैं? एस्टेट के मालिक हैं। अपने दोस्तों को बुला- येंगे। शहरी सभ्य लोग होंगे। मैं तो कर्मकांडी ब्राह्मण हूँ। हमें छोड़िए। रवि और कमली को बुलाना ही उचित है उन्हें ले जाइवे! हमारे प्रतिनिधि के रूप में कुमार और पारू को भिजवा दूँगा।'

रवि अभी तक सो रहा था। वेणुकाका रुके रहे, कि वह जगे तो उससे भी कह दें।

तभी सड़क पर चाँदी की मूठ वाली छड़ी लिए राजसी चाल में चार किसानों के साथ एक व्यक्ति आते दिखे। जरीदार धोती और उत्तरीय, माथे पर चंदन का टीका, मुँह में पान!

'क्यों शर्मा, सुना है तुम्हारा बेटा आया है?' पान की पीक थूकते हुए बोले।

'हाँ। आइए सीमावय्यर जी!' 'शर्मा जी उठकर खड़े हो गये। पर वेणुकाका न उठे, न अभिवादन ही किया। उनका चेहरा घृणा