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तुलसी चौरा :: ७१
 


के साथ जरी का उत्तरीय पहले ऐसी शान से चला जा रहा था कि बस! पूछ रहा था, रवि के बारे में। मैंने भी बस दो बातें कर ली।'

'तो बेटा आ गया?'

'हाँ, आ गया। कल मिल लेना।'

'दो, कुछ प्रेम वेम का जो चक्कर था...वह क्या हुआ।'

'चक्कर भी साथ लाया है। देख लेना न आकर!'

'ऐसे क्यों कह रहे हो यार! उसकी जिंदगी में तुम काहे टाँग अड़ा रहे हो।'

'मेरी टाँग अड़ाने की आदत ही नहीं है?'

'अच्छा छोड़ो! मैं खुद उससे बात कर लूँगा।'

शर्मा जी विदा लेकर वहाँ चल पड़े। सीमावय्यर के संदर्भ में इस तरह की शिकायतें पहले भी वे सुन चुके हैं। गढ़ी हुई प्रतिमा की तरह सुन्दर मलरकोडि के साथ उन्होंने बदतमीजी की होगी, इसमें कोई संदेह की गुंजाइश नहीं हैं। सीमावय्यर तो छुट्टे साँड़ हैं। उनकी वजह से गाँव का नाम बदनाम हो रहा है। कई जगह मुँह की खा चुके हैं, पर अभी तक अक्ल नहीं आयी। इन्हीं कारणों से सीमावय्यर के हाथों से मठ के तमाम अधिकार छीन लिये गए थे। पर सीमा- वय्यर को अपनी गलतियों का एहहास तक नहीं होता। उन्हें तो हमेशा यही लगता रहा कि शर्मा जी ने उनके खिलाफ साजिश की है और अधिकार हथिया लिए हैं।

'इन्सान बाज वक्त कामुक भी हो सकता है। पर हमेशा कामुक की तरह फिरता पशु, इन्सान कैसे हो सकता है?' नीति श्लोक में कहा गया है। शर्मा जी को श्लोक याद आया। सीमावय्यर की तरह यदि उच्च वर्ग में कुछ गंदे लोग पैदा होते रहे तो इरैमुडिमणि जैसे लोगों को भी, उन्हें सुधारने के लिये निम्न वर्ग में जन्म लेना होगा।

शर्मा जी यूँ दीया बाती के बाद, पका हुआ भोजन नहीं करते। गाय का दूध और दो केले यही उनका रात्रि भोजन है। अपना भोजन