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७२ :: तुलसी चौरा
 

समाप्त कर वे श्रीमठ के विवाह मंडल की ओर चल दिये। यह बैठक वहीं होनी थी। बटाई का बही खाता, मठ के काम आए पत्र दोनों को ही झोले में डाल लिया। रास्ते में देशुकाका का घर पड़ता था। वहाँ की जगमगाहट और सड़क पर लगी कारों को देखकर उन्हें लगा कि रवि और कमली को घर लौटने में ग्यारह बज जाएँगे।

श्रीमठ विवाह मंडप के पास गली में वह मुड़ने लगे, तो सामने से आता एक किसान रुक गया। सिर के अँगोछे को कमर में बाँध लिया और बोला, 'सरकार, आज बटाई की बैठक नाहीं है क्या? फिर कब आवै के परै?'

'किसने कहा कि आज बैठक नहीं है? बैठक आज ही है। चलो मेरे साथ।'

'पर सीमावय्यर कहत रहे कि आज नहीं है...।'

'तू चल मेरे साथ।' शर्मा जी विवाहमंडप के अन्दर गए। वहाँ आमतौर पर लगते वाली भीड़ नहीं थी। केवल सीमावय्यर और उनके चार पाँच खास किसान बैठे हुए थे।

आस-पास के अठारह गाँवों से बटाई के लिये किसान आया करते थे। और आज एक भी नहीं आये, यह अविश्वसनीय बात लगी।

मरवन बांगला, नत्तमपाडी, आनंद कोकै, अलंकासमुद्रम––आस-पास के इन गाँवों से भी कोई नहीं आया।

'आइए पंडित जी। आज तो भीड़ ही नहीं है। काम जल्दी निपट जाएगा।' सीमावय्यर ने उत्साह के साथ आवाज लगाई। उन्हें लगा होगा कि इस बार सस्ते में वे पट्टीदारी ले लेंगे, शर्मा जी को उनकी चाल समझ में आ गयी।

'आप क्षमा करें, सीमावय्यर! श्रीमठ के आदेशानुसार आस-पास के अठारह गाँव के लोगों के सामने ही बैठक होनी है।'

'तो, इसका मतलब यह हुआ कि तीन चार गाँवों से जो लोग आए हैं, उन्हें अपमानित करके भिजवा दिया जाए, क्यों?'