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तुलसी चौरा :: ७३
 

'इनमें कैसा मान अपमान! श्रीमठ के आदेश की, अवहेलना मैं नहीं कर सकता।' 'मेरे जमाने में वो ऐसा नहीं होता था। काम जल्दी मिपटा लिया जाता था।'

शर्मा जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। कारिदे को बुलवा कर अगले सप्ताह इसी दिन फिर बैठक के आदेश देकर आस-पास के अठारह गाँवों में मुनादी करवाने को कह दिया।

वे लौटे तो कामाक्षी ओसारे पर बैठी मीनाक्षी दादी से बतिया रही थी। दादी अमली के बारे में पूछताछ कर रही थी।

कामाक्षी जाने क्या कहती, पर शर्मा जी इसी बीच सीढ़ियाँ चढ़- कर भीतर आ गए।

'वे लोग नहीं आए'

'किन्हें पूछ रहे हैं?'

'वही जो पार्टी में गए हैं।'

'नहीं! अभी तो देर लगेगी। इतनी जल्दी कहाँ लौटेंगे।'

शर्मा जी के आते ही दादी उठकर चली गयी।

आधे घंटे में पार्वती और कुमार अकेले ही लौटे।

'क्यों? वे लोग कहाँ रह गए?'

'बाऊ जी, पार्टी में एस्टेट मालिक शारंगपाणि नायडू आये थे। पार्टी खत्म होने के बाद उन्होंने भैय्या और उनकी दोस्त को एस्टेट गेस्ट हाउस में रात ठहरने के लिए कहा। वे लोग वहीं चले गए।'

'कौन? नायडू!'

'हाँ, बाऊजी।'

कामाक्षी ने कुमार की बातें ठीक से नहीं सुनीं। शर्मा जी से फिर पूछा, वे 'लोग कहाँ हैं।' शर्मा जी ने वही बात फिर दोहराई।

XXX
 

वेणु काका के घर पार्टी खत्म होते-होते दस बज गए थे। वेणु- काका और बसँती ने ही नायडू को सुझाया था कि वे रवि और कमली