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८२:: तुलसी चौरा
 

'वे लोग यहाँ आयेंगे, तो अबकी बार अपने गेस्ट हाउस की चावी भी दे देंगे।' बसंती ने कहा।

नीचे आते-आते तीन बज गये थे। रवि और कमली जब घर पर कार से उतरे साड़े चार बज गए थे।

ओसारे पर शर्मा जी इरैमुडिमणि से बातें कर रहे थे। इरैमुडिमणि ने रवि का उत्साह के साथ स्वागत किया। कमली का परिचय करवाया गया। इरैमुडिमणि–नाम का उच्चारण करती हुई कमली ने नाम का अर्थ पूछ लिया। रवि ने बताया कि यह देव शिखामणि का रूपांतरण है।

मरै-भलै अडिगल, परिदिगात्र कलेंडर जैसे ही यह भी नाम है न।' कमली ने रवि से पूछ लिया।

'अरे, तमिल भी जानती है यह तो। बैंठो बेटा। उनसे भी कहो, बैठ जाएँ।' इरैमुडिमणि ने कहा। रवि सामने वाले ओसारे पर बैठ गया। कमली नहीं बैठी। शर्मा जी के सामने बैठते सकुचा रही थी। शर्मा जी ने भांप लिया।

'आप लोग बातें करें, मैं अभी मठ के कारिदे को बुला लाता हूँ।' कहते हुए वे निकल गये। उनके जाने के बाद तीनों को बातें शुरू करने की स्वतन्त्रता मिल गयी। कमली रवि से थोड़ा हटकर बैठ गयी।

'तमिल ही नहीं, हमारे रीति रिवाज भी आपने इन्हें सिखाया है। इस बात की बहुत खुशी हैं, मुझे।' इरैमुडिमणि ने कहा।

उनकी गुरु गंभीर आवाजा, मंचीय भाषण का सा सधा हुआ बात- चीत का लहजा…कमली उनके विषय में जानने को उत्सुक हो गयी। रवि ने उसे सविस्तार समझाया। उसकी बातों को इरैमुडिमणि ने विभन्नता से नकारा।

'बेटे का मेरे प्रति प्यार ही है कि मेरी बहुत तारीफ करने लगा।' हैं। मैं तो एक साधारण सा व्यापारी हूँ। बस रेशनल मूवमेंट से जुड़ा हूँ।