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तुलसी चौरा :: ८९
 

'आना तो नहीं चाहता था। मन नहीं माना। मठ की सम्पत्ति अच्छे लोगों के काम आए और मठ का भी फायदा उसमें हो……।'

'ठीक कहा आपने, इसमें कोई संदेह है? इस बात पर तो दो राय हो ही नहीं सकती।'

'बात तो आप बिल्कुल मीठी करते हैं। पर काम तो विपरीत करते हैं।'

पिछले दिन वाली बटाई की घटना और उस बैठक को स्थगित करने से उत्पन्न सीमावय्यर गुस्सा साफ झलक रहा था।'

ओसारे पर वह भी एक तीसरे आदमी के सामने सीमावण्यर से किसी बहस में, शर्मा जी उलझना नहीं चाहते थे। उनका ज्ञान, उनका विवेक इन्हें तमाम बहमों, लड़ाई झगड़ों की अनुमति नहीं देता। ऊँचे स्वर में बोलना तक वे नहीं जानते। कामाक्षी से बाज वक्त ऊँचे स्वर में बोलना पड़ता, तो वे सकुचा जाते। पर वहाँ मजबूरी थी। सीमावय्यर की तरह वे बातें नहीं कर सकते। वे सीमावय्यर को समझा बुझाकर भेजना चाहते थे।

शाम का वक्त था और ओसारे पर किसी तरह का विवाद संझ- वाती के वक्त नहीं उठाना चाहते थे।

बोले, 'इस वक्त आप क्या चाहते हैं? मुझे देर हो रही है। संध्या वंदन का समय हो रहा है। नदी तक जाना है। आपके पास भी काम होंगे। बड़े आदमियों को मैं देर तक नहीं रोकता। आप बताइए……।' शर्मा जी ने पूछा।

'तो क्या, फिर से बताना होगा? मैंने तो लिखा था न। मियाँ को बह खाली प्लाट दिलवाना है।'

'तो ठीक है। आप यह मियाँ एक पत्र लिखकर दें। उसे मठ भिजवा देता हूँ। जवाब मिलेगा तो बता दूँगा।'

'मेरा पहले वाला पत्र भिजवा दो, काफी है।'

शर्मा जी ने वह पत्र दुबारा पढ़ा और बोले, 'इसमें तारीख