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तुलसी चौरा :: ९५
 

कामाक्षी की बातों के लिए कमली से क्षमा याचना कर लेना जरूरी लगा। ऊपर सीढ़ियाँ चढ़ने लगे थे कि कानों में 'दुर्गा स्तुति' अमृत की तरह उतरने लगी।

'सर्व मंगल मांगल्ये, शिवे सर्वाथ साधके,
शरण्ये बयम्बके देवी नारायणी नमोस्तुते।'

पार्वती बोल रही थी, कमली उसे दोहरा रही थी। कमली के उच्चारण में कहीं भी अटपदापन नहीं था। शर्मा जी के रोयें खड़े हो गए। इतना साफ उच्चारण है इस लड़की का और मूर्ख कामाक्षी इसी के लिये कह रही थी कि इसके दीयाबाती करने से लक्ष्मी नहीं टिकेगी। कामाक्षी पर उन्हें क्रोध आया। शर्मा जी सीढ़ियों पर ही खड़े रहे। देश काल, आचार संस्कृति जाति, रंग―इन सबके आधार पर पूरी मानवजाति के बीच दरार पैदा करने वालों पर उन्हें क्रोध आया। ऊपर जाकर उनके एकांत को भंग करना क्या जरूरी हैं? उन्होंने सोचा। पर कमाक्षी की हरकत के लिये क्षमा याचना किये बगैर, उन्हें चैन नहीं मिलेगा।

उन्होंने कमरे में प्रवेश किया कमली और पार्वती ने श्लोक पाठ रोक दिया और उठकर खड़ी हो गयी।

'कामाक्षी की उम्र हो गयी पर वह नहीं जानती है कि किससे क्या कह रही है।―'मन में मैल मत रखना बेटी, भूल जाना इसे...।'

कमली समझ गयी कि बात उसको लक्ष्य कर कही जा रही है। उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर ही वे तेजी से सीढ़ियाँ उतर गए। मन बहुत परेशान था। इससे तो अच्छा यही होता कि वेणुकाका की सलाह पर कमली और रवि को उनके ही घर ठहराते। इससे क्या हुआ, यह शुभ कार्य अब कर डालेंगे। हालांकि इससे घर और बाहर समस्यायें पैदा होंगी। रवि के लौटने पर इस बारे में विस्तार से बातें करेंगे, और एक निर्णय लेंगे। उन्हें एक ही बात का भय था, ऐसा न हो कि एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ घटती चली जाएँ