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तुलसी चौरा :: ९७
 

दोनों पिछवाड़े के कुएँ के पास बनी सीमेंट के चबूतरे पर बैठ गए।

बातें शुरू करने के पहले शर्मा जी ने भूमिका बाँधी। कमली के बारे में कामाक्षी की शंकाएँ, उसके प्रश्न, संशवाती की घटना से उठा विवाद, सीमावय्यर का प्रश्न, घाट पर पंडितों की पूछताँछ-एक-एक कर बताते चले गये। बोलते-बोलते एकाएज रुक गए। रवि की प्रति- किया जानना चाहते थे।

'आप ठीक कह रहे हैं, बाऊ जी। यह तो मैं अपेक्षा कर ही रहा था। पर अब मुझे क्या करना होगा, यह तो बताइए।'

'मुझे गलत मत समझना। तुम्हारा पत्र मिलने पर मेरे मन में जो क्षोभ उभरा था, वह अब लेश मात्र भी नहीं रहा। कमली मुझे बहुत पसंद है। तुम्हारे प्यार में मैं कोई कमी नहीं पाता। पर तुम यह मत भूलना कि तुम्हारी माँ, घर, गाँव सब इसके विपरीत है।'

'आप इसे सही समझ रहे हैं, यह मेरा सौभाग्य है।'

'मैं सही समझ रहा हूँ वह ठीक है, पर यह मत भूलना कि मैं भी समाज के नियमों से मुक्त नहीं हूँ।'

'यही तो अपने देश की विडम्बना है कि हमारे यहाँ के विद्वान बुद्धिजीवी भी कायर हैं।'

'देखो बेटे, ज्ञान और सामाजिकता दोनों अलग बातें हैं। मैं यह अपने लिये नहीं कह रहा। शाम जो घटना घटी थी, यदि इसी तरह की घटनाएँ एक के बाद एक घटती चली जायें तो... उसका मन कितना दुखी हो जाएगा कभी सोचा तुमने।'

'तो बाऊ जी, आप ही बताइए, क्या किया जाए। यह तो एक या दो दिन की बात नहीं है। मैं इस बार एक वर्ष के लीव में आया हूँ। वह भारत के औपनिवेशिक फ्रेंच समाज पर और भारतीय संस्कृति की फ्रेंच संस्कृति पर पड़े प्रभाव पर शोध कार्य करने आयी है। इस कार्य के लिये अमेरिकन फाउंडेशन उसकी मदद कर रहा है। वह भी