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माया और ईश्वरधारणा का क्रमविकास

आया। तब वे अपने उन्हीं प्राचीन देवताओं में—चञ्चल, लड़ाकू, शराबी, गोमांसाहारी देवताओं में—जिनको जले मांस की गन्ध से और तीव्र सुरा की आहुति से ही परम आनन्द होता था―कुछ असंगति देखने लगे। दृष्टान्त स्वरूप देखिये―वेद में वर्णन आता है कि कभी कभी इन्द्र इतना मद्यपान कर लेता था कि वह बेहोश होकर गिर पड़ता था और अण्ड बण्ड बकने लगता था। इस प्रकार के देवताओं में लोगों का विश्वास स्थापित रखना अब असम्भव हो गया। तब सभी के उद्देश्यों की खोज आरम्भ हो गई थी और देवताओं के कार्यों के उद्देश्य भी पूछे जाने लगे। अमुक देवता के अमुक कार्य का क्या उद्देश्य है? कोई उद्देश्य नहीं मिला। अतएव लोगो ने उन सब देवताओं का त्याग कर दिया, अथवा वे देवताओ के विषय में और भी उच्च धारणाये बनाने लगे। उन्होने देवताओं के उन सब गुणों तथा कार्यों को, जिन्हे वे समझ सकते थे या अच्छा समझते थे, एकत्रित किया और जिन कार्यों को उन्होने अच्छा नहीं समझा अथवा समझा ही नहीं, उन्हे भी अलग कर दिया; और इनमें से जो अच्छे कार्यों का समूह था उसे उन्होंने 'देव-देव' नाम दिया। तब उनके उपास्य देवता केवल शक्ति के परिचायक मात्र नहीं रहे, शक्ति से अधिक और भी कुछ उनके लिये आवश्यक होगया। अब वे नीतिपरायण देवता हो गये; वे मनुष्यों से प्रेम करने लगे, मनुष्यों का हित करने लगे। किन्तु देवता सम्बन्धी धारणा फिर भी अक्षुण्ण रही। वे लोग देवता की नीतिपरायणता तथा शक्ति को ही बढा सके। अब विश्व में वे एक देवता सर्वश्रेष्ठ नीतिपरायण तथा एक प्रकार से सर्वशक्तिमान पुरुष माने जाने लगे।