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माया और मुक्ति

सकते। तो भी हम चेष्टा करते रहते है। चेष्टा हमे करनी ही पड़ेगी; यही माया है।

प्रत्येक साँस में, हृदय की प्रत्येक धड़कन में, अपनी प्रत्येक गति में हम समझते है कि हम स्वतन्त्र हैं, और उसी क्षण हम देखते है कि हम स्वतन्त्र नहीं है। क्रीत दास―हम प्रकृति के क्रीत दास है―शरीर, मन तथा सभी चिन्ताओ एवं सभी भावो में हम प्रकृति के क्रीत दास है; यही माया है।

ऐसी एक भी माता नहीं है जो अपनी सन्तान को अद्भुत शिशु―महापुरुष नहीं समझती है। वह उसी बालक को लेकर पागल हो जाती है, उसी बालक के ऊपर उसके प्राण पड़े रहते है। बालक बड़ा हुआ―शायद बिलकुल शराबी और पशुतुल्य हो गया―जननी के प्रति बुरा व्यवहार तक करने लगा। जितना ही उसका दुर्व्यवहार बढ़ता है उतना ही जननी का प्रेम भी बढ़ता है। लोग इसे जननी का निःस्वार्थ प्रेम कह कर खूब प्रशंसा करते है―उनके मन में प्रश्न भी नहीं उठता कि वह माता जन्म भर के लिये केवल एक क्रीत दासी के समान है―यह प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकती। हजारो बार उसकी इच्छा होती है कि वह इस मोह का त्याग कर देगी, किन्तु वह कर ही नहीं सकती। अतः वह इसे सुन्दर पुष्पों से सजा कर उसी को अद्भुत प्रेम कह कर व्याख्या करती है; यही माया है।

हम सब का यही हाल है। नारद ने एक दिन श्रीकृष्ण से पूछा, "प्रभो, आपकी माया कैसी है, मैं देखना चाहता हूँ।" कई दिन के बाद श्रीकृष्ण नारद को लेकर एक जंगल में गये। बहुत दूर जाने के बाद श्रीकृष्ण नारद से बोले―"नारद, मुझे बड़ी प्यास लगी है।