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माया और मुक्ति

आहते होकर बद्ध के समान मालूम होते है किन्तु उसी क्षण, उसी आघात के साथ ही साथ, 'हम बद्ध है' इस भाव के साथ ही साथ और भी एक भाव हमारे अन्दर आता है कि हम मुक्त है। मानों हमारे अन्दर से कोई हमे यह कहने को बाध्य कर रहा है कि हम मुक्त है। किन्तु इस मुक्ति की प्राणो से उपलब्धि करने में, अपने मुक्त स्वभाव का प्रकाश करने में सब बाधाये उपस्थित होती है वे भी एक प्रकार से अनतिक्रमणीय है। तथापि अन्दर से हमारे हृदय के अन्त- स्तल में मानो वह आवाज़ सदा ही उठती रहती है―मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ। और यदि तुम संसार के सभी धर्मों की आलोचना करके देखो तो समझोगे―उनमें से सभी में किसी न किसी रूप में यह भाव प्रकाशित हुआ है। केवल धर्म में ही नहीं―धर्म शब्द को आप संकीर्ण अर्थ में मत लीजिये—सभी प्रकार का सामाजिक जीवन केवल इसी एक मुक्त भाव की अभिव्यक्ति मात्र है। सभी प्रकार की सामा- जिक गति उसी एक मुक्त भाव का विभिन्न प्रकाश मात्र है। मानो सभी लोग जान बूझकर या अनजाने ही उस स्वर को सुन रहे हैं जो दिन रात कह रहा है, "ओ थके हुये और बोझ से लदे हुये मनुष्यो! मेरे पास आओ!" एक ही प्रकार की भाषा अथवा एक ही ढंग से, चाहे वह प्रकाशित न होती हो, किन्तु मुक्ति की ओर हमें आह्वान करने वाली वह वाणी किसी न किसी रूप में हमारे साथ सदा वर्तमान रहती है। हमारा यहाँ जो जन्म हुआ है वह भी इसी वाणी के कारण; हमारी प्रत्येक गति ही इसी के लिये है। हम जानें या न जाने, किन्तु हम सभी मुक्ति की ओर चल रहे ह, जान कर या अनजाने हम उसी वाणी का अनसरण कर रहे है।