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ज्ञानयोग

(Idealism) में परिणत कर दिया था और माया शब्द इसी अर्थ में साधारणतः आजकल व्यवहृत होता है। हिन्दू लोग जब जगत् को "मायामय" बताते है तब साधारण मनुष्य के मन में यही भाव उदय होता है कि "जगत् कल्पना मात्र है।" बौद्धो की इस प्रकार की व्याख्या का कुछ आधार है; कारण, एक श्रेणी के दार्शनिक पहले बाह्य जगत् के अस्तित्व में बिलकुल ही विश्वास नहीं करते थे। किन्तु वेकान्त में वर्णित माया का अन्तिम निश्चित स्वरूप,―विज्ञानवाद, बास्तववाद† (Realism) अथवा किसी प्रकार का मतवाद नहीं है। हम क्या हैं, और अपने चारो ओर हम क्या देखते है, इस सम्बन्ध में प्रकृत घटना का यह सहज वर्णनमात्र है। मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि जिनके अन्तःकरण से वेद निकले उनकी चिन्ताशक्ति मूल तत्व की खोज में तथा आविष्कार में ही लगी हुई थी। इन सब तत्त्वों का विस्तृत अनुशीलन करने के लिए मानों उन्हें अवसर ही नहीं मिला और उन्होने इसकी आवश्यकता भी नहीं समझी। वे तो वस्तु-मात्र के अन्तरतम प्रदेश में पहुँचने के लिये ही व्यग्र थे। ऐसा जान पड़ता है मानो उस पार उन्हें कोई बुला रहा था। अत: वे ठहर नहीं सकते थे। वस्तुतः उपनिपदो में इधर उधर बिखरी हुई आधुनिक विज्ञान की विषयीभूत विशेष प्रतिपत्ति बहुधा भ्रमात्मक होते हुये भी उनके मूल तत्वो के साथ विज्ञान के मूल तत्वो का कोई प्रभेद नहीं है। यहाँ पर एक दृष्टान्त दिया जाता है। आधुनिक विज्ञान का ईथर (Ether) अथवा आकाशविषयक नवीन तत्व उप- निषदो में विद्यमान है। यह आकाश-तत्व आधुनिक वैज्ञानिकों के


†जगत् केवल हमारे मन की अनुभूतिमात्र नहीं है, उसकी वास्तविक सत्ता है, इस मत को वास्तववाद या Realism कहते हैं।