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माया और मुक्ति

समस्त मानव जीवन, समस्त प्रकृति उसी एक मुक्तभाव को अभिव्यक्त करने की चेष्टा कर रही है, बसः सूर्य भी उसी ओर चल रहा है, पृथिवी भी उसी के लिये सूर्य के चारों ओर भ्रमण कर रही है, चन्द्र भी इसीलिये पृथिवी के चारों ओर घूम रहा है। उसी स्थान पर पहुँ- चने के लिये समस्त ग्रह-नक्षत्र भ्रमण कर रहे है और वायु बह रही है। उसी मुक्ति के लिये बिजली तीव्र घोष करती है और उसी के लिये मृत्यु भी चारो ओर घूम फिर रही है। सभी उस दिशा में जाने के लिये चेष्टा कर रहे है। साधु लोग भी उसी ओर जा रहे हैं, बिना गये वे रह ही नहीं सकते, उनके लिये यह कोई प्रशंसा की बात नहीं है। पापी लोगो की भी यही दशा है। खूब दान देने वाला व्यक्ति भी वही सब लक्ष्य बना कर सरल भाव से चल रहा है, बिना चले बह रहे ही नहीं सकता; और भयानक कृषण व्यक्ति भी उसी को लक्ष्य बनाकर चल रहा है। जो महासत्कर्मशील हैं उन्होने भी उसी वाणी को सुना है, वे सत्कर्म किये बिना रह ही नहीं सकते, और बड़े आलसी व्यक्ति का भी यही हाल है। एक व्यक्ति का पदस्खलन दूसरे की अपेक्षा अधिक हो सकता है और जिस व्यक्ति का पदस्खलन अधिक होता है उसे हम दुर्बल कहते है और जिसका कम होता है उसे सज्जन या सत् कहते है। अच्छा या बुरा ये दो भिन्न वस्तुये नहीं हैं, बल्कि एक ही है; उनके बीच का भेद प्रकारगत नहीं, परिणामगत है।

अब देखिये, यदि यही मुक्तभाव रूपी शक्ति वास्तव में समस्त जगत् में कार्य कर रही है तो हमारे विशेष आलोच्य विषय―धर्म में उसका प्रयोग करने पर हम देख पाते हैं―सभी धर्म इसी एक भाव के