पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३८
ज्ञानयोग

द्वारा नियमित हैं। अत्यन्त निम्न कोटि के धर्मों को लीजिये तो शायद किसी मृत पूर्वपुरुष की अथवा किसी निष्ठुर देवता की उपासना हो रही है किन्तु उनके उपास्य इन देवताओ अथवा मृत पूर्वपुरुषों की धारणा क्या है? धारणा यह है कि वे प्रकृति से ऊपर है, इस माया के द्वारा वे बद्ध नहीं है। हाँ, प्रकृति के बारे में उनकी धारणा अवश्य ही सामान्य है। वे केवल आकर्षण और विप्रकर्षण इन दोनो शक्तियो से परिचित है। उपासक, जो कि एक मूर्ख अज्ञानी व्यक्ति है उसकी बिल्कुल स्थूल धारणा है कि वह घर की दीवार को भेद कर नहीं जा सकता अथवा शून्य में उड़ नहीं सकता। अतः इन सब बाधाओ को अतिक्रमण करना या न करना इसके अतिरिक्त शक्ति की उच्चतर धारणा उसे है ही नहीं; अतएव वह ऐसे देवता की उपासना करता है जो दीवार भेदकर अथवा आकाश में होकर आ जा सकते है अथवा जो अपना रूप परिवर्तित कर सकते है। दार्शनिक भाव से देखने पर इस प्रकार की देवोपासना में क्या रहस्य छिपा है? रहस्य यही है कि यहाँ भी वही मुक्ति का भाव मौजूद है, उनकी देवता की धारणा परिज्ञात प्रकृति की धारणा से उन्नत है। और जो उनसे अधिक उन्नत देवों के उपासक है उनकी भी उसी मुक्ति की दूसरे प्रकार की धारणा है। जैसे जैसे प्रकृति के सम्बन्ध में हमारी धारणा उन्नत होती जाती है वैसे ही प्रकृति के प्रभु आत्मा के सम्बन्ध में भी वह उन्नत होती जाती है; अन्त में हम एकेश्वरवाद में पहुँच जाते है। यही माया― यही प्रकृति रह जाती है, और इसी माया के एक प्रभु रह जाते है― यही हमारी आशा का स्थल है।