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ज्ञानयोग

कि वहाँ न मन है, न चिन्ता। देश भी वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई परिणाम नहीं है। गति एवं निमित्त अथवा कार्यकारण- भाव भी वहाँ नहीं रह सकता जहाँ एक मात्र सत्ता विराजमान है। यही बात समझना और अच्छी तरह धारणा बनाना हमारे लिये अत्यावश्यक है कि जिसको हम कार्यकारणभाव कहते है वह ब्रह्म के प्रपञ्च रूप में अवनत भाव को प्राप्त होने के बाद ( यदि हम इस भाषा का प्रयोग करे तो) ही होता है, उससे पहले नहीं; और हमारी इच्छा वासना आदि जो कुछ है वह सब उसके बाद आरम्भ होता है। मेरी बराबर यही धारणा रही है कि शोपेनहावर (Schopenhauer) वेदान्त के समझने में यहीं पर भ्रम में पड़ गये है कि उन्होंने इस 'इच्छा' को ही सर्वस्व मान लिया है। वे ब्रह्म के स्थान में इस 'इच्छा' को ही बैठाना चाहते है। किन्तु पूर्ण ब्रह्म का कभी भी 'इच्छा' (Will) कह कर वर्णन नहीं किया जा सकता, कारण, इच्छा जगत्प्रपञ्च के अन्तगर्त है और इसीलिये परिणामशील है, किन्तु ब्रह्म में ('ग' के अर्थात् देश-काल-निमित्त के ऊपर) किसी प्रकार की गति नहीं है, किसी प्रकार का परिणाम नहीं है। इस (ग) के नीचे ही गति है―बाह्य और आभ्यन्तर सभी प्रकार की गति का आरम्भ इसके नीचे ही है और इसी आभ्यन्तरिक गति को ही चिन्ता कहते है। अतः (ग) के ऊपर किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह सकती, अतएव 'इच्छा' जगत् का कारण नहीं हो सकती। और भी निकट आकर देखो; हमारे शरीर की सभी गतियाँ इच्छा से प्रेरित नहीं होतीं। मैं इस कुर्सी को उठाता हूँ। यहाँ पर इच्छा अवश्य ही उठाने का कारण है। यह इच्छा ही पेशियों की शक्ति के रूप में परिणत हो गई है। यह बात ठीक है। किन्तु जो शक्ति कुर्सी उठाने का कारण है वही शक्ति