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ज्ञानयोग

है―'स य एपोऽणिमैतदात्म्यमिदं सर्वं तत् सत्यं स आत्मा तत्वमसि श्वेतकेतो,' जिसका अर्थ है, 'वही सूक्ष्म स्वरूप जगत का कारण सकल वस्तुओं का आत्मा, वही सत्य स्वरूप है, हे श्वेतकेतो, तुम वही हो।' यही 'तत्वमसि' वाक्य वेदान्त में सब से अधिक पवित्र वाक्य―महावाक्य―कहलाता है और इस पूर्वोक्त वाक्यांश के द्वारा 'तत्वमसि' का वास्तविक अर्थ क्या है यह भी स्पष्ट हो गया। 'तुम्ही वह हो' इसके अतिरिक्त ईश्वर की और किसी भाषा द्वारा आप वर्णन नहीं कर सकते। भगवान को पिता, माता, भाई या प्रिय मित्र कहने से उसको 'विषयीकृत' करना पड़ता है―उसको बाहर लाकर देखना पड़ता है―जो कभी हो ही नहीं सकता। वह तो सभी विषयों का अनन्त विषयी है। जिस प्रकार मैं जब इस कुर्सी को देखता हूँ तो मैं कुर्सी का द्रष्टा हूँ―मैं उसका विषयी हूँ, उसी प्रकार ईश्वर मेरी आत्मा का नित्य द्रष्टा है—नित्य ज्ञाता है―नित्य विषयी है। किस प्रकार आप उसको―अपनी आत्मा के अन्तरात्मा को―सब वस्तुओं की सार सत्ता को 'विषयीकृत' करेगे, बाहर लाकर देखेगे? इसीलिये मैं आप से फिर कहता हूँ कि ईश्वर ज्ञेय भी नहीं है, अज्ञेय भी नहीं है, वह ज्ञेय और अज्ञेय दोनों से अत्यन्त ऊँचा है―वह हमारे साथ अभिन्न है, ओर जो हमारे साथ एक है वह हमारे लिये ज्ञेय अथवा अज्ञेय कुछ नहीं हो सकता, जैसे तुम्हारी आत्मा या मेरी आत्मा ज्ञेय अथवा अज्ञेय कुछ नहीं है। आप अपनी आत्मा को नहीं जान सकते, आप उसे हिला डुला नहीं सकते, न उसे 'विषय' करके दृष्टिगोचर कर सकते हैं, कारण, आप स्वयं वही हैं, आप अपने को उससे पृथक नहीं कर सकते। आप उसको अज्ञेय भी नहीं कह सकते, क्योंकि अज्ञेय कहते ही प्रथम उसे विषय बनाना पड़ेगा―और यह हो नहीं सकता। आप