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ज्ञानयोग

नास्तिकता कहते है, अद्वैतवादी भी उसी प्रकार द्वैतवादियों की बातों से डरते और कहते है कि मनुष्य किस प्रकार उसको (ईश्वर को) अपनी ज्ञेय वस्तु समझने का साहस करता है? ऐसा होने पर भी वे जानते है कि धर्मजगत् में द्वैतवाद का स्थान कहाँ पर है―वे जानत है कि द्वैतवादी अपने दृष्टिकोण से ठीक ही बात कहते हैं, अतः उनसे उनका कोई विवाद नहीं। जब तक वे समष्टिभाव से न देख कर व्यष्टि भाव से देखते है तब तक उन्हे अवश्य ही 'अनेक' देखना पड़ेगा। व्यष्टि भाव की ओर से देखने पर उन्हे अवश्य ही भगवान को बाहर देखना पड़ेगा—ऐसा न हो, यह हो ही नहीं सकता। वे कहते हैं—'हमे अपने मत में ही रहने दो।' फिर भी अद्वैतवादी जानेत है कि द्वैतवादियों के मत में चाहे कितनी ही असम्पूर्णता क्यों न हो, वे सभी उसी एक लक्ष्य की ओर जा रहे है। इसी स्थान पर उनका द्वैतवादियों के साथ पूरा मतभेद है। संसार के सभी द्वैतवादी स्वभावतः ही एक ऐसे सगुण ईश्वर में विश्वास करते है जो एक उच्च शक्तिसम्पन्न मनुष्यमात्र है, और जिस प्रकार मनुष्य के कुछ प्रिय पात्र होते हैं, तथा कुछ अप्रिय पात्र, उसी प्रकार द्वैतवादियो के ईश्वर के भी होते है। वह बिना किसी कारण के ही किसी से तो सन्तुष्ट है, किसी से विरक्त। आप देखेंगे कि सभी जातियों में ऐसे लोग कितने ही है जो कहते हैं―'हम ईश्वर के अन्तरंग प्रिय पात्र है और कोई नहीं; यदि अनुतप्त हृदय से हमारी शरण में आओ तभी हमारा ईश्वर तुम पर कृपा करेगा।' और कितने ही द्वैतवादी ऐसे हैं, जिनका मत और भी भयानक है। वे कहते है―"ईश्वर जिनके प्रति दयालु है, जो उसके अन्तरंग हैं, वे पहले से ही ईश्वर द्वारा 'निर्दिष्ट' है―और कोई यदि माथा फोड़ कर भी मर जाय तो भी इस अन्तरग