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जगत्

अतएव इस जगतब्रह्माण्ड मे जो ज्ञानराशियाॅ अब अभिव्यक्त हो रही है वे अवश्य ही केवल उसी क्रमसंकुचित सर्वव्यापी चैतन्य की अभिव्यक्ति है। इसी सर्व-व्यापी विश्वजनीन चैतन्य का नाम है ईश्वर। उसको किसी भी नाम से पुकारो यह निश्चित है कि आदि में वही अनन्त विश्वव्यापी चैतन्य था। वही विश्वजनीन चैतन्य क्रम- संकुचित हुआ था। फिर वही अपने को क्रमशः अभिव्यक्त कर रहा है जब तक कि वह पूर्ण-मानव या ख्रिस्ट-मानव या बुद्ध-मानव मे परिणत न हो। तब वह फिर निजी उत्पत्ति के स्थान पर लौट आता है। इसलिए सभी शास्त्र कहते है, "हम उनमे जीवित है, उनमें ही रहकर चलते है, उनमे हमारी सत्ता है।" इसीलिए फिर शास्त्र कहते है, "हम ईश्वर से आये है, फिर उनमे ही लौट जायेगे।" विभिन्न परिभाषाओ से मत डरो, परिभाषा से अगर डर जाओ तो तुम लोग दार्शनिक नहीं बन सकोगे। ब्रह्मवादी इस विश्वव्यापी चैतन्य को ही ईश्वर कहते है।

कई लोगो ने कई बार मुझसे पूछा है, "आप क्यो इस पुराने 'ईश्वर' (God) शब्द का व्यवहार करते है? इसका उत्तर यह है कि पूर्वोक्त विश्वव्यापी चैतन्य समझाने के लिए जितने शब्दो का व्यवहार किया जा सका है उनमे यही सर्वोत्तम है। उससे अच्छा और कोई शब्द नहीं मिल सकता है, क्योंकि मानवो की सारी आशाये और सुख उसी एक शब्द मे केन्द्रीभूत हैं। अब इस शब्द को बदल डालना असंभव है। जब बड़े बड़े साधु महात्माओ ने ऐसे शब्दो को चुन लिया था तो वे ज़रूर इनका तात्पर्य अच्छी तरह समझते थे। धीरे धीरे जब समाज में भी उन शब्दों का प्रचार होता