पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/१८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८४
ज्ञानयोग


प्रश्न पूछा गया है त्योंही उत्तर भी मिला है, एवं जितना ही समय बीतता जायगा वह उतना ही महत्वपूर्ण बनता जायगा। वास्तव मे हजारों वर्ष पहले ही उस प्रश्न का निश्चित उत्तर दिया गया था और परवर्ती काल में वही उत्तर फिर से दुहराया गया व हमारी बुद्धि मे उसका पूर्ण विकास होता गया। अतएव हमे केवल उस उत्तर को फिर से एक बार दुहरा देना है। इन समस्याओं को हम एक नये रूप से जांच करने की कोशिश नही करेगे; हम चाहते है कि वर्तमान युग की भाषा मे हम उस सनातन महान सत्य को प्रकाशित करे, प्राचीन की चिन्ता हम नवीनों की भाषा मे व्यक्त करे। दार्शनिको की चिन्ता हम लौकिक भाषा मे कहेगे--देवताओं की चिन्ता को हम मनुष्यो की भाषा मे प्रकट करेगे, ईश्वर संबंधी चिन्ताएँ मानव की दुर्बल भाषा मे कहते जायेगे ताकि सब उसे समझ सके। क्योंकि हम बाद मे देखेंगे कि जिस ईश्वरीय सत्ता से ये सब भाव प्रसूत हुए है वह मानवों मे भी वर्तमान है--जिस सत्ता ने इन चिन्ताओं की सृष्टि की है, मानव मे स्वय वह प्रकट होकर स्वय ही इन्हे समझ सकेगी।

मैं तुम लोगों को देख पा रहा हूॅ। इस दर्शनक्रिया के लिये कितनी चीजो की ज़रूरत होती है? पहले तो ऑखों की आवश्यकता हम अनुभव करते है--ऑखे अवश्य ही रहनी चाहिये। मेरी अन्यान्य इन्द्रियाॅ स्वस्थ होते हुए भी यदि मेरी ऑखे न हों तो मै तुम लोगो को नहीं देख सकूॅगा। अतएव पहले ऑखे अवश्य ही रहनी चाहिये। दूसरी बात यह है, ऑखों के पीछे और कुछ रहने की आवश्यकता होती है जिसे हम प्रकृत रूप से दर्शनेन्द्रिय कह सकते है। यदि हममें यह न हो तो दर्शनक्रिया असम्भव है। वस्तुतः ऑखे कोई