पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९७
जगत्

सकते है कि तिर्यग् जाति व मनुष्य में जो स्वाभाविक ज्ञान के रूप मे प्रकट होता है वह केवल इच्छा का अवनत भाव है।

बहिर्जगत् मे हमें जो नियम मिला था, अर्थात् “प्रत्येक क्रम-विकास-प्रक्रिया के पहले एक क्रम-संकोच-प्रक्रिया रहती है और क्रमसकोच के साथ साथ क्रमविकास भी रहता है " इस नियम से हम स्वाभाविक ज्ञान का कौनसा तात्पर्य निकाल सकते है। यही कि स्वाभाविक ज्ञान विचार -पूर्वक कार्य का क्रम-सकुचित भाव है । अतएव मनुष्य अथवा पशु मे जिसे हम स्वाभाविक ज्ञान कहते है वह अवश्य ही पूर्ववर्ती इच्छाकृत कार्य का क्रम-संकोच भाव होगा। और 'इच्छाकृत कार्य ' कहने से पहले यह अपने आप ही स्वीकृत हो जाता है कि हमने अभिज्ञता या अनुभव का लाभ किया था । पूर्वकृतकार्य से वह संस्कार आया था और वह संस्कार अब भी विद्यमान है। मरने का भय, जन्म से ही तैरने लगना तथा मनुष्य में जितने अनिच्छाकृत स्वाभाविक कार्य पाये जाते है वेसभी पूर्व-कार्य व पूर्व-अनुभूति के फल है-वे ही अब स्वाभाविक ज्ञान के रूप मे परिणत हुये हैं। अब तक इस विचार मे हम आसानी से आगे बढ़ सके है और यहॉ तक आधुनिक विज्ञान भी हमारा सहायक रहा । आधुनिक वैज्ञानिक धीरे धीरे प्राचीन ऋषियो से सहमत हो रहें है एवं प्राचीन ऋपियो के मत को वैज्ञानिक जहाँ तक मान लेते है वहाँ तक कोई गड़बड नहीं है। वैज्ञानिक मानते है कि प्रत्येक मनुष्य एवं प्रत्येक पशु कई अनुभूतियो की समष्टि लेकर जन्म लेते है, वे यह भी मानते है कि मन के ये सब कार्य पूर्व अनुभूति के फल है । किन्तु यहॉ पर वे लोग और एक प्रश्न पूछते हैं: उन लोगो का कहना है कि यह बात कहने की क्या आवश्यकता है कि ये अनु-