आत्मा देह के बाद देह ग्रहण करती है, शरीर के बाद शरीर प्रस्तुत करती है, और हम जो कुछ चिन्ता करते है, हम जो कुछ कार्य करते है वही सूक्ष्म भाव मे रह जाता है और समय आने पर वे ही स्थूल रूप मे व्यक्त भाव धारण करके आत्मप्रकाश के लिये उन्मुख होते हैं । मैं अपना अभिप्राय तुम्हे और भी अधिक स्पष्ट रूप से कह दूं । जव कभी मैं तुम लोगों की ओर देखता हूँ तो मेरे मन मे एक तरग उठती है। वह मानो मेरे चिन्ताहद के भीतर डूब जाती है, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है, परन्तु वह विलकुल ही नष्ट नहीं हो जाती । मन मे वह किसी भी मुहूर्त मे स्मृति-तरंग के रूप मे प्रकट होने को प्रस्तुत रहती है। इसी तरह मेरे मन के भीतर ही यह समस्त संस्कारसमष्टि विद्यमान है जो मृत्यु के समय पर साथ ही वाहर हो जायगी | मानो, इस कमरे मे कहीं एक गेद पड़ी है और हम सब एक एक छडी से सब ओर से उसे मारने लगे। गेद कमरे के एक कोने से दूसरे कोने में दौड़ने लगी, दरवाजे के नजदीक जाते ही वह वाहर चली गई। वह किस शक्ति से बाहर चली जाती है ?--जितनी छड़ियाँ उसे मारी गई थी उनकी सम्मिलित शक्ति से । किस ओर उसकी गति होगी, यह भी इन सभी के समवेत फल से निर्णित होगा। इसी प्रकार, शरीर का पतन होने पर आत्मा की गति का निर्णायक क्या होगा? उसने जैसे कर्म किये है,जैसी चिन्ताएं की है, वे ही उसे किसी विशेष दिशा मे परिचालित करेगी। अपने भीतर उन सबो की छाप लेकर वह आत्मा अपने गन्तव्य की ओर अग्रसर होगी। यदि समवेत कर्मफल इस प्रकार हो कि भोग के लिये उसे पुनः एक नया शरीर गढ़ना होगा तो वह ऐसे पिता-माता के पास जायगी जिनसे वैसे शरीर गठन करने के उपयुक्त उपादान प्राप्त कर सके और उन्ही उपादानो के द्वारा वह एक नया