पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१०. बहुत्व में एकत्व

पराच्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्मात् परान् पश्यति

नान्तरात्मन्।

कश्चिद्धीर ..प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।

—कठोपनिपद् , द्वितीय अध्याय, प्रथम वल्ली

स्वयंभू ने इन्द्रियो को बहिर्मुख होने का विधान बनाया है, इसीलिये मनुष्य सामने की ओर (विपयो की ओर ) देखता है.अन्तरात्मा को नहीं देखता। कोई कोई जानी व्यक्ति जो विपयो की ओर से निवृत्तदृष्टि है और अमृतत्व प्राप्ति की इच्छा रखता है, अन्तरस्थ आत्मा को देखा करता है।" हम देख चुके है कि वेदो के संहिता भाग मे तथा अन्य ग्रन्थो मे भी जगत् के तत्व का जो अनुसन्धान हो रहा था उससे बाहरी प्रकृति की तत्वालोचना द्वारा ही जगत् के कारण का अनुसन्धान करने की चेष्टा की गई थी, उसके बाद इन सभी सत्य की खोज करने वालो के हृदय मे एक नवीन प्रकाश आलोकित हुआ; उन्होंने समझ लिया कि बहिर्जगत् के अनुसन्धान द्वारा वस्तु का वास्तविक स्वरूप जानना असम्भव है । फिर किस प्रकार उसको जानना होगा ? वाहर की ओर से दृष्टि को फिरा कर अर्थात् भीतर की ओर दृष्टि करके जानना होगा। और यहाँ पर आत्मा का विशेपण स्वरूप जो 'प्रत्यक्' शब्द प्रयुक्त हुआ है वह भी एक विशेष भाव का द्योतक है । प्रत्यक् अर्थात् जो भीतर की ओर गया है -हमारी अन्तरतम वस्तु