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ज्ञानयोग

किस प्रकार हम इस तत्व को जान सकते है? यह मन जो इतना भ्रान्त और र्दबल है, जो इतने सहज में विभिन्न दिशाओं में दौड़ जाता है, इस मनको भी सबल किया जा सकता है―जिससे वह उस ज्ञान का―उसी एकत्व का आभास पा सके। उस समय वही ज्ञान पुनः पुनः मृत्यु के हाथो से हमारी रक्षा करता है। "यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति। एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति।" (कठ॰ अ॰ २, वल्ली १, श्लोक १४) "जल उच्च दुर्गम भूमि में वरस कर जिस प्रकार पर्वतों में से होकर विकीर्ण हो दौड़ता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति गुणों को पृथक् करके देखता है वह उन्हीं का अनुवर्तन करता है।" वास्तविक शक्ति एक है, केवल माया में पड़ कर अनेक होगई है। अनेक के पीछे मत दौड़ो, बस उसी एक की ओर अग्रसर होओ।" हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिपदतिथि- र्दुरोणसत्। नृषद्वरसदृतसद्वयोमसदव्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं वृहत्।" (कठ॰ अ॰ २, वल्ली २, श्लोक २) "वह (वही आत्मा) आकाशवासी सूर्य, अन्तरिक्षवासी वायु, वेदिवासी अग्नि और कलशवासी सोमरस है। वही मनुष्य, देवता, यज्ञ और आकाश में है, वही जल में, पृथिवी पर, यज्ञ में और पर्वत पर उत्पन्न होता है; वह सत्य है, वह महान् है।" "अग्निर्यथैको भुवन प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूव। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूप रूप प्रतिरूपो बहिश्च।" "वायुर्यथैको भुवंन प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूव। एकस्तथा सर्व- भूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो वहिश्च।" (कठ॰ अ॰ २, वल्ली २, उलोक ९-१०) "जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत् में प्रविष्ट होकर" दाह्य वस्तु के रूपभेद से भिन्न भिन्न रूप धारण करती है उसी प्रकार सब भूतों का एक अन्तरात्मा नाना वस्तुओं के भेद से उस उस वस्तु