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बहुत्व में एकत्व

का रूप धारण कर लेता है, और सब के बाहर भी रहता है। जिस प्रकार एक ही वायु जगत् में प्रविष्ट होकर नाना वस्तुओ के भेद से तत्तद्रूप हो गयी है उसी प्रकार वही एक सब भूतो का अन्तरात्मा नाना वस्तुओं के भेद से उस उस रूप का हो गया है और उनके बाहर भी है।" जब तुम इस एकत्व की उपलब्धि करोगे तभी यह अवस्था होगी, उससे पूर्व नहीं। यही वास्तविक सुखवाद है―सभी जगह उसका दर्शन करना। अब प्रश्न यही है कि यदि यह सत्य है, यदि वह शुद्ध स्वरूप अनन्त आत्मा इन सब के भीतर प्रवेश करके रहता है तब यह क्यो सुख दुःख भोग करता है? क्यों वह अपवित्र होकर दुःख भोग करता है। उपनिषद कहते हैं कि वह दुःखानुभव नहीं करता। "सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुपैः बाह्यदौषै। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः।" (कठ॰ अ॰ २, वल्ली २, श्लोक ११) "सभी लोको का चक्षुरूप सूर्य जिस प्रकार चक्षुग्राह्य वाह्य अपवित्र वस्तु के साथ लिप्त नहीं होता उसी प्रकार एक मात्र सब प्राणियो का अन्तरात्मा जगत् सम्बन्धी दुःख के साथ लिप्त नहीं होता, कारण वह फिर भी जगत् के अतीत है।" हमे एक रोग ऐसा हो सकता है जिसके कारण हमे सभी कुछ पीले रंग का दिखाई दे, किन्तु इससे सूर्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। "एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूप बहुधा यः करोति। तमान्मस्थ येऽनुपश्यन्ति धीरास्तपां सुखं शाश्वतं नेतरेपाम्।" (कठ॰ अ॰ २, वल्ली २, श्लोक १२) "जो एक है, सब का नियन्ता एवं सब प्राणियों का अन्तरात्मा, जो अपने एक रूप को अनेक प्रकार का कर लेता है, उसका दर्शन जो ज्ञानी पुरुष अपने में करते है, वे ही नित्य सुखी है, अन्य नहीं।" "नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानामेको