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बहुत्व मे एकत्व


स्पष्ट रूप से होता है। "यथादर्शे तथात्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके। यथाप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके। (कठ० अ० २, बल्ली ३, श्लोक ५) "जिस प्रकार आरसी मे लोग अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से देखते है, उसी प्रकार आत्मा में ब्रह्म का दर्शन होता है। जिस प्रकार स्वप्न मे हम अपने को अस्पष्ट रूप से देखते है उसी प्रकार पितृलोक मे ब्रह्मदर्शन होता है। जिस प्रकार जल मे लोग अपना रूप देखते है उसी प्रकार गन्धर्वलोक मे ब्रह्मदर्शन होता है। जिस प्रकार प्रकाश और छाया परस्पर पृथक् है उसी प्रकार ब्रह्मलोक मे ब्रह्म और जगत् स्पष्ट रूप से पृथक् मालूम पडते है।" किन्तु फिर भी पूर्ण रुप से ब्रह्मदर्शन नहीं होता। अतएव वेदान्त कहता है कि हमारा अपना आत्मा ही सर्वोच्च स्वर्ग है, मानवात्मा ही पूजा के लिये सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है, वह सभी स्वर्गों से श्रेष्ठ है। कारण इस आत्मा मे उस सत्य का जैसा स्पष्ट अनुभव होता है और कही भी उतने स्पष्ट रूप से अनुभव नहीं होता। एक स्थान से अन्य स्थान में जाने से ही आत्मदर्शन के सम्बन्ध मे कुछ विशेष सहायता होती हो सो बात नही। जब मै भारतवर्ष में था तो सोचता था कि किसी गुफा मे बैठ कर शायद खूब स्पष्ट रूप से ब्रह्म की अनुभूति होगी, परन्तु उसके बाद देखा कि यह बात नहीं है। फिर सोचा जगल मे जाकर बैठने से शायद सुविधा होगी। काशी की बात भी मन में आई। सभी स्थान एक प्रकार के है, कारण हम स्वय ही अपना जगत् तैयार कर लेते है। यदि मैं बुरा बन जाऊँ तो सभी जगत् मुझे बुरा दीख पडेगा। उपनिषद् यही कहते हैं और वही एक नियम सब जगह लागू होगा। यदि मेरी यहाॅ मृत्यु हो जाती है एवं यदि