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ज्ञानयोग

मैं स्वर्ग जाता हूँ तो वहाँ भी मैं सब कुछ यही के समान देखूँगा। जब तक आप पवित्र नहीं हो जाते तब तक गुफा, जंगल, काशी अथवा स्वर्ग जाने से कोई विशेष लाभ नहीं। और यदि आप अपने चित्त रूपी दर्पण को निर्मल कर सकें तब आप चाहे कही भी रहे, आप वास्तविक सत्य का अनुभव करेंगे। अतएव इधर उधर भटकना शक्ति का व्यर्थ ही भय करना मात्र है―उसी शक्ति को यदि चित्तदर्पण को निर्मल बनाने में लय किया जाय तभी ठीक होता है। निम्नलिखित श्लोक में इसी भाव का वर्णन है:―

न सन्दृशे तिष्ठति रूपमस्य
न चक्षुपा पश्यति कश्चनैनम्।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।

(कठ॰ अ॰ २, बल्ली ३, श्लोक ९)

उसका रूप देखने की वस्तु नहीं। कोई उसको आँख से नहीं देख सकता। हृदय, संशयरहित बुद्धि एवं मनन के द्वारा वह प्रकाशित होता है। जो इस आत्मा को जानते है वे अमर हो जाते है। जिन लोगों ने राजयोग सम्बन्धी मेरे व्याख्यान सुने है उनके लिये मैं कहता हूँ कि वह योग ज्ञानयोग से कुछ भिन्न प्रकार का है। ज्ञानयोग का लक्षण इस प्रकार कहा गया है। जैसेः―

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्॥

(कठ॰ अ॰२, वल्ली ३, श्लोक १०)