पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४५
सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन

आत्मा के सम्मुख तो अनन्त जीवन पड़ा हुआ है–अध्यवसाय के साथ चेष्टा करने पर तुम्हारी वासना अवश्य पूर्ण होगी।

"अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनह्वे आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत् तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः॥

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मान ततो न विजुगुप्सते॥

यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानत।
तत्र को मोह. कः शोक एकत्वमनुपश्यत.॥

(ईशोपनिषद्, ४-७ श्लोक)

"वह अचल है, एक है, मन से भी अधिक द्रुत गति वाला है। इन्द्रियाँ उसके पूर्व चल कर भी उसको प्राप्त नहीं होतीं। वह स्थिर रह कर भी अन्यान्य द्रुतगामी पदार्थों से आगे जानेवाला है। उसमे रह कर ही हिरण्यगर्भ सब के कर्मफलो का विधान करते है। वह चञ्चल है, वह स्थिर है, वह दूर है, वह निकट है, इस सब के भीतर है, फिर भी वह इस सब के बाहर भी है। जो आत्मा के अन्दर सब भूतो का दर्शन करते है, और सब भूतो में आत्मा का दर्शन करते है वे कुछ भी छिपाने की इच्छा नहीं करते। जिस अवस्या में ज्ञानी व्यक्ति के लिये समस्त भूत आत्मस्वरूप हो जाते हैं, उस अवस्था में उस एकत्वदर्शी पुरुष को शोक अथवा मोह कहाँ रह सकता है?"