पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२६१
अपरोक्षानुभूति


हम लोग बारंबार इस भ्रम में पड़ते हैं। हम जानते हैं कि सभी बाह्य विषय प्रत्यक्ष के ऊपर ही निर्भर रहते हैं। बाह्य विषयों पर विश्वास करने को तुमसे कोई नहीं कहता और न उनके पारस्परिक सम्बन्ध विषयक नियम किसी युक्ति पर निर्भर हैं, किन्तु प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा वे लब्ध होते हैं। फिर सभी तर्क कुछ प्रत्यक्षानुभूतियों के ऊपर स्थापित है। रसायनवेत्ता कुछ द्रव्य लेते हैं—उससे और कुछ द्रव्य उत्पन्न होते हैं। यह एक घटना है। हम उसे स्पष्ट देखते हैं, प्रत्यक्ष करते हैं, एवं उसे नींव मान कर हम रसायन-शास्त्र का विचार करते हैं। पदार्थ-तत्ववेत्ता भी वैसा ही करते हैं—सभी विज्ञान के विषय में यही हाल है। सभी प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष के ऊपर स्थापित है। उसके ऊपर निर्भर रहकर ही हमलोग विचार-युक्ति किया करते हैं। किन्तु आश्चर्य का विषय है कि अधिकांश लोग, विशेषतः वर्तमान काल में, सोचा करते हैं कि धर्मतत्त्व में प्रत्यक्ष करने को कुछ नहीं है—यदि कुछ धर्मतत्त्व लाभ करना होगा तो वह बाह्य वृथा तर्क के द्वारा ही होगा। किन्तु वास्तविक धर्म बातों का विषय नहीं है, यह तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय है। हमें अपनी आत्मा के अन्दर अन्वेषण करके देखना होगा कि वहाँ क्या है। हमें उसे समझना होगा और जिसे हम समझेंगे उसका साक्षात्कार करना होगा। यही धर्म है। चाहे कितना ही चीत्कार क्यों न करो, परन्तु वह धर्म नहीं हो सकता। अतएव एक कोई ईश्वर है या नहीं, यह व्यर्थ तर्कों के द्वारा प्रमाणित नहीं हो सकता, क्योंकि युक्ति दोनों ओर समान है। किन्तु यदि कोई ईश्वर है, तो वह हमारे अन्तर में ही है। तुमने क्या कभी उसे देखा है? यही प्रश्न है। जिस तरह जगत् का अस्तित्व है या नहीं—इस प्रश्न की मीमांसा अभीतक