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ज्ञानयोग


नही हो सकी इसी प्रकार प्रत्यक्षवाद और विज्ञानवाद Idealism) का तर्क अनंत काल से चला आरहा है। इस प्रकार का तर्क निश्चय ही चलता है, परन्तु हम जानते है कि जगत् है और वह चल रहा है। हमलोग केवल एक शब्द का भिन्न भिन्न अर्थ करके यह तर्क किया करते है। हमारे जीवन के अन्यान्य सभी प्रश्नों के सम्बन्ध मे भी ऐसा ही है--हमे प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त करनी होगी। जैसे बाह्य विज्ञान मे--उसी तरह परमार्थ विज्ञान मे भी हमें कुछ पारमार्थिक व्यापार को प्रत्यक्ष करना होगा। उसी पर धर्म स्थापित होगा। अवश्य ही किसी भी धर्म के किसी भी मत में विश्वास रखना होगा, इस युक्तिहीन दावे मे कोई आस्था नहीं की जा सकती। उससे मनुष्य के मन की अवनति होती है। जो व्यक्ति तुम्हे सभी विषयों में विश्वास करने को कहता है, वह अपने को भी नीचे गिराता है, और यदि तुम उसके वचनो पर विश्वास करते हो तो वह तुम्हे भी नीचे गिराता है। जगत् के साधुगणो को हमसे केवल यही कहने का अधिकार है कि उन्होंने अपने मन का विश्लेपण किया है तथा उन्होने कुछ सत्य पाया भी है, हम भी वैसा करे, फिर हम उन पर विश्वास करेगे, उसके पहले नहीं। यही धर्म का सार है। किन्तु यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो जो धर्म के विरुद्ध तर्क करते है, उनमे से निन्यान्नवे प्रतिशत व्यक्ति अपने मन का विश्लेषण करके नहीं देखते, वे सत्य को पाने की चेष्टा नहीं करते। इसलिये धर्म के विरोध मे उनकी युक्ति का कोई मूल्य नही है। यदि कोई अन्धा मनुष्य निश्चय करके कहे, "तुम लोग, जो कि सूर्य के अस्तित्व में विश्वास करनेवाले हो सभी भ्रान्त हो" तो उसके इस वाक्य का जितना मृत्य होगा, उतना ही मूल्य इनके वाक्य का होगा। इसलिये जो अपने मन का विश्लेषण नहीं करते और धर्म को एकदम