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माया

नहीं जानता, कचहरी में जाना नहीं जानता, वह नियमित कर देना नहीं जानता, समाज द्वारा निन्दित होना नहीं जानता, पैशाचिक मानव-प्रकृति से उत्पन्न जो भीषण अत्याचार एक दूसरे के हृदय के गुप्त से गुप्त भावों का अन्वेषण करने में लगा हुआ है उसके द्वारा वह दिन रात पर्यवेक्षित होना नही जानता। वह नहीं जानता कि भ्रान्तज्ञान से सम्पन्न गर्वित मानव किस प्रकार पशु से भी सहस्त्र गुना पैशाचिक स्वभाव वाला हो जाता है। इसी प्रकार हम जिस समय इन्द्रियपरायणता से उन्मुक्त होने लगते हैं, हमारी सुखानुभव की उच्चतर शक्ति की वृद्धि के साथ साथ यन्त्रणानुभव की शक्ति की भी पुष्टि होती है। स्नायुमण्डल और भी सूक्ष्म होकर अधिक यन्त्रणा के अनुभव में समर्थ हो जाता है। सभी समाजों में यह बात दिन प्रति दिन प्रत्यक्ष होती जाती है कि साधारण मूर्ख मनुष्य तिरस्कृत होने पर अधिक दुःखी नहीं होता किन्तु अधिक प्रहार होने पर दुःखी हो जाता है। सभ्य पुरुष एक बात भी सहन नहीं कर सकते। उनका स्नायुमण्डल इतना सूक्ष्म भावग्राही हो गया है। उनकी सुखानुभूति सहज हो गई है इसीलिये उनका दुःख भी बढ़ गया है। दार्शनिक पण्डितों का क्रमविकास-वाद इसके द्वारा अधिक समर्थित नहीं होता। हम अपनी सुखी होने की शक्ति को जितना ही बढ़ाते हैं, हमारी यन्त्रणा-भोग की शक्ति उसी परिमाण में बढ़ जाती है। मेरा विनीत मत यही है कि हमारी सुखी होने की शक्ति यदि समयुक्तान्तर श्रेणी के नियम (Arithmetical Progression) से बढ़ती है तो दूसरी ओर दुःखी होने की शक्ति समगुणितान्तर श्रेणी (Geometrical Prog-