पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६७
अपरोक्षानुभूति


होगी! किन्तु हमारी दृष्टि मे वह स्वर्ग सुविधाजनक न होगा। हम लोग बारबार अरबी कविता मे पढ़ते है, स्वर्ग अनेक प्रकार के मनोहर उद्यानों से पूर्ण है, उसमे अनेक नदियाॅ बहती है। मैंने अपना अधिकांश जीवन एक ऐसे स्थान मे बिताया है, जहाॅ जल प्रचुर मात्रा में है, कितने ही गाव और हजारो लोग प्रतिवर्ष बाढ़ में मृत्यु के मुख मे चले जाते है। अतएव मेरा स्वर्ग नदीप्रवाहयुक्त एवं उद्यानपूर्ण नहीं हो सकता; मेरा स्वर्ग तो शुष्कभूमिपूर्ण तथा अधिक वर्षारहित होना आवश्यक है। हमारे जीवन के सम्बन्ध मे भी ऐसा ही है, सुख की हमारी धारणा क्रमश बदलती रहती है। युवक यदि स्वर्ग की कल्पना करे तो उसका स्वर्ग परम सुन्दर रमणीयों से परिपूर्ण होना आवश्यक है। वही व्यक्ति आगे चल कर वृद्ध होने पर उसे स्त्री की आवश्यकता फिर न रहेगी। हमारा प्रयोजन ही हमारे स्वर्ग का निर्माता है, और हमारे प्रयोजन के परिवर्तन के साथ साथ हमारा स्वर्ग भी भिन्न भिन्न रूप धारण करता है। यदि हम इस प्रकार के एक स्वर्ग में जायॅ जहाॅ अनन्त इन्द्रिय-सुख का लाभ होगा तो उस जगह हमारी कोई विशेष उन्नति नही हो सकती। जो विषयभोग को ही जीवन का एक मात्र उद्देश्य मानते है वे ही इस प्रकार के स्वर्ग की प्रार्थना किया करते है। यह वास्तविक मंगलकारी न होकर महा अमगलकारी होगा। यही क्या हमारी अन्तिम गति है? थोडा हॅसना-रोना, उसके वाद कुत्ते के समान मृत्यु! जिस समय तुम लोग इन सब विषय भोगों की प्रार्थना करते हो, उस समय तुम यह नही जानते कि मानव जाति के लिये जो अन्यत अमगलकारक है, उसकी तुम कामना करते हो--वास्तविक ऐहिक सुखभोग की कामना करके तुम वैसा ही करते हो, क्योकि तुम यह नहीं जानते कि प्रकृत आनन्द क्या है।