पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८२
ज्ञानयोग

सत्य ही ईश्वर है, वही हमारा प्रकृत स्वरूप है―वह सर्वदा ही तुम्हारे साथ रहता है और केवल यही नहीं, तुममें ही रहता है। उसी में सर्वदा वास करो। यद्यपि यह बहुत कठिन प्रतीत होता है, तथापि क्रमशः यह सहज हो जायगा। तब तुम देखोगे, उसमें रहना ही एकमात्र आनन्दपूर्ण अवस्था है, अन्य सभी अवस्थाये मृत्यु है। आत्म-भाव में पूर्ण होना ही जीवन है, और सभी भाव मृत्यु है। हमारे वर्तमान समस्त जीवन को ही केवल शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय कहा जा सकता है। प्रकृत जीवन लाभ करने के लिए हमे इसके बाहर जाना होगा।




_________