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आत्मा का मुक्त स्वभाव


मशाल प्रत्येक क्षण में स्थान-परिवर्तन करती है। उसी तरह हम भी छोटे छोटे परमाणुओ की समष्टि मात्र हैं, उन परमाणुओं के ज़ोर से घूमने से यह 'अहं' भ्रान्ति उत्पन्न होती है। अतएव एक मत यह हुआ कि शरीर सत्य है, आत्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं है। दूसरा मत यह है कि चिन्ताशक्ति के द्रुत स्पन्दन से जड़ रूप एक भ्रान्ति की उत्पत्ति होती है, वस्तुत: जड का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह तर्क आज तक चल रहा है,--एक दल कहता है--आत्मा भ्रम मात्र है, दूसरा इसी तरह जड़ को भ्रम कहता है। तुम कौन सा मत लोगे?

हम तो निश्चय ही आत्मास्तित्ववाद को स्वीकार कर जड़ को भ्रमात्मक कहेगे। युक्ति दोनों ओर बराबर है, केवल आत्मा के निरपेक्ष अस्तित्व की ओर वाली युक्ति अपेक्षाकृत प्रवल है; क्योंकि जड़ क्या है इसे किसी ने कभी देखा नहीं। हम केवल स्वयं को ही अनुभव कर सकते है, मैंने ऐसा मनुष्य नही देखा, जिसने स्वय के बाहर जाकर जड का अनुभव किया हो। कोई कभी कूद कर अपनी आत्मा के बाहर नहीं जा सकता। अतएव आत्मा के पक्ष मे यह एक दृढ़तर युक्ति हुई। द्वितीयतः आत्मवाद जगत् की सुन्दर व्याख्या हो सकता है, किन्तु जड़बाद नहीं। अतएव जड़वाद के द्वारा जगत् की व्याख्या अयौक्तिक है।

पहले जो आत्मा के स्वाभाविक मुक्त और बद्ध भाव सम्बन्धी विचार का प्रसग उठा था, जड़वाद और आत्मवाद का तर्क उसी का केवल स्थूल भाव है। दर्शनसमूह का सूक्ष्म भाव मे विश्लेषण करने पर तुम देखोगे कि उनमे भी इन दोनों मतों का संघर्ष है। अति आधुनिक दर्शनसमूह में भी हम किसी दूसरे रूप मे उसी प्राचीन