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ज्ञानयोग


विचार को ही देखते हैं। एक दल कहता है--मनुष्य का तथाकथित पवित्र और मुक्त स्वभाव भ्रम मात्र है--दूसरे इसी प्रकार बद्धभाव को ही भ्रमात्मक कहते हैं। इस जगह भी हम दूसरे दल के साथ ही सहमत है--हमारा बद्धभाव ही भ्रमात्मक है।

अतएव वेदान्त का सिद्धान्त यह है कि हम बद्ध नहीं है, अपितु नित्यमुक्त है। इतना ही नहीं बल्कि यह सोचना भी कि हम बद्ध है, अनिष्टकर है, भ्रम है, अपने आपको मोह मे डालकर अभिभूत करना है। जहाॅ तुमने कहा कि मै बद्ध हूँ, दुर्बल हूँ, असहाय हूॅ, तभी तुम्हारा दुर्भाग्य आरम्भ होगया, तुमने अपने पैरो मे और एक शृखला डाल ली। इसलिये ऐसी बात कभी न कहना और न इस प्रकार कभी सोचना ही। मैने एक आदमी की कहानी सुनी है; वह वन मे रहता था, एवं दिनरात 'शिवोऽहं, शिवोऽहं' उच्चारण करता था। एक दिन एक बाघ ने उसके ऊपर आक्रमण किया और उसे पकड़कर ले चला। नदी के दूसरे तट पर कुछ लोग यह सब दृश्य देख रहे थे। परन्तु उस व्यक्ति की 'शिवोऽह, शिवोऽहं' की ध्वनि लगातार जारी थी। जितनी देर तक उसमे बोलने की शक्ति थी, बाघ के मुख मे पड़कर भी वह 'शिवोऽह, शिवोऽहं' कहता ही रहा, चुप नही हुआ। इस प्रकार और भी अनेक व्यक्तियों की बात सुनी गई है। कई व्यक्तियों के शत्रुओं ने उनके टुकडे टुकडे कर डाले, परन्तु वे उन्हे आशीर्वाद ही देते रहे। 'सोऽहं सोऽह, मै ही वह, मै ही वह, तुम भी वही'। मै निश्चित पूर्णस्वरूप हूॅ, मेरे सभी शत्रु भी पूर्णस्वरूप है। तुम भी वही हो, और मै भी वही हूॅ। यही वीर की बात है।