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आत्मा का मुक्त स्वभाव

न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य-
श्चिदानंदरूपः शिवोऽह शिवोऽहम्॥
न पुण्यं न पाप न सौख्य न दुःखम्
न मत्रं न तीर्थं न वेदान यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्य न भोक्ता
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥

वेदान्तं कहता है कि साधारण मनुष्य के लिए यह सत्य ही एक मात्र अवलम्बनीय है। उस अन्तिम लक्ष्य पर पहुॅचने के लिए यही एक मात्र उपाय है--सभों से यही कहना है कि हमी वह है। बार बार ऐसा कहने से बल आयेगा। 'शिवोऽहं रूपी यह अभय-वाणी क्रमशः अधिकाधिक पुष्ट होकर हमारे हृदय मे, हमारे सभी भावो मे भिद जायगी, अन्त मे हमारी नस-नस मे, शरीर के प्रत्येक भाग मे यह समा जायगी। ज्ञानसूर्य की किरणे जितनी अधिक उज्ज्वल होने लगती है, मोह उतना ही दूर भाग जाता है, अज्ञानराशि ध्वंस होती है और धीरे धीरे एक समय ऐसा आता है जब कि सारा अज्ञान बिलकुल लुप्त हो जाता है एवं एकमात्र ज्ञानसूर्य ही अवशिष्ट रह जाता है। अवश्य ही अनेको को यह वेदान्त-तत्व भयानक मालूम हो सकता है, किन्तु उसका कारण कुसंस्कार है, यह मैने पहले ही कहा है। इसी देश मे (इग्लैंड मे) ऐसे बहुत लोग है जिनसे मै यदि कहूॅ कि इस दुनिया मे शैतान नाम की कोई चीज नही है तो वे समझेगे कि धर्म का सत्यानाश होगया। अनेकों ने मुझसे कहा है कि शैतान के न रहने से धर्म किस तरह कायम रह सकता है? उन लोगों का कहना है कि हम परिचालित करने के लिये कोई न रहने से धर्म का क्या अर्थ है?

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