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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/३२२

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ज्ञानयोग

मन ही पर्याप्त नहीं है, मन भी किसी के हाथ में यंत्र मात्र है; उस व्यक्ति की बाल्यावस्था में उसके मन के अन्दर वह भाषा गूढ़ भाव से सञ्चित थी—किन्तु वह उसे नहीं जानता था, किन्तु बाद में एक ऐसा समय आया जब वह उसे जान सका। इससे यही प्रमाणित होता है कि मन के अतिरिक्त और भी कोई है—उस व्यक्ति के बाल्यकाल में इसी 'और कोई' ने उस शक्ति का व्यवहार नहीं किया, किन्तु जब वह बड़ा हुआ तब उसने उस शक्ति का व्यवहार किया। पहले यह शरीर, उसके मन, अर्थात् विचार का यंत्र, उसके बाद इस मन के पीछे रहने वाला वही आत्मा। आधुनिक दार्शनिक लोग चिन्ता को मस्तिष्क में स्थित परमाणुओं के विभिन्न प्रकार के परिवर्तन के साथ अभेद मानते हैं, अतएव वे ऊपर कही हुई घटनावली की व्याख्या नहीं कर पाते, इसीलिये वे साधारणतः इन सब बातों को बिल्कुल अस्वीकार कर देते हैं।

जो हो, मन के साथ मस्तिष्क का विशेष सम्बन्ध है और शरीर का विनाश होने पर वह कार्य नहीं कर सकता। आत्मा ही एक मात्र प्रकाशक है—मन उसके हाथ में यंत्र के समान है। बाहर के चक्षु आदि यंत्रों में विषय का चित्र गिरता है, और वे उसको भीतर मस्तिष्क केंद्र में ले जाते हैं—कारण, आपको यह याद रखना चाहिये कि चक्षु आदि केवल इन चित्रों को ग्रहण करनेवाले हैं; भीतर का यंत्र अर्थात् मस्तिष्क का केन्द्रसमूह ही कार्य करता है। संस्कृत भाषा में मस्तिष्क के इन सब केन्द्रों को इन्द्रिय कहते हैं—ये इन्द्रियाँ इन चित्रों को लेकर मन के पास अर्पित कर देती हैं, फिर मन इनको बुद्धि के निकट और बुद्धि उन्हें अपने सिंहासन पर बैठे हुये महा