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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

है? कोई तेजस्वी हृदय जीवन भर बड़े आग्रह के साथ जिस आशा को अपने हृदय में रख कर पालता रहा वह एक मुहूर्त में ही उड़ कर न जाने कहाँ चली गई, तो क्या हम इस सब आशा को सत्य कहे? इस प्रश्न का उत्तर देना होगा। प्राणो की इस आकांक्षा की, हृदय के इस गम्भीर प्रश्न की शक्ति का कभी भी ह्रास नहीं होगा, वरञ्च काल का स्रोत ज्यो ज्यो आगे बढ़ता जायगा त्यो त्यो इस प्रश्न की शक्ति बढती जायगी और उतने ही अधिक प्रबल वेग से यह प्रश्न हृदय के ऊपर आघात करेगा। मनुष्य को सुखी होने की इच्छा होती है। अपने को सुखी करने की इच्छा से मनुष्य सभी ओर दौड़ता फिरता है―इन्द्रियो के पीछे पीछे दौड़ता फिरता है―पागल की भाँति बहिर्जगत् में कार्य करता जाता है। जो युवक जीवनसड्ग्राम में सफल हुये है उनसे यदि पूछो तो कहेगे, यह जगत् सत्य है―उन्हे सभी बाते सत्य प्रतीत होती है। ये ही व्यक्ति जब बूढ़े हो जायेगे, जब सौभाग्यलक्ष्मी उन्हे बार बार धोखा देगी तब उन्हीसे यदि पूछोगे तो यही कहेंगे कि 'सब ही अदृष्ट है'। उन्होने इतने दिन तक यही देख पाया कि वासना की पूर्ति नहीं होती। वे जिधर जाते है उधर ही मानों वज्र के समान दृढ़ दीवार उनके सामने खड़ी हो जाती है जिसे लॉघ कर जाना उनके लिये असम्भव है। इन्द्रियो की चञ्चलता की ही प्रतिक्रिया होती रहती है। सुख और दुःख दोनों ही क्षणस्थायी है। विलास, विभव, शक्ति, दारिद्रय, यहाँ तक कि जीवन भी क्षणस्थायी है।

उपर्युक्त प्रश्न के दो उत्तर है। एक है―शून्यवादियो की भाँति विश्वास करना कि सभी शून्य है, हम कुछ भी नहीं जान सकते, हम