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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

कोई उत्तर नहीं दे सके। कोई कोई बालक मध्याकर्षण या और कुछ कह कह कर उत्तर देने लगे। उनमे से एक बुद्धिमती बालिका ने एक और प्रश्न करके इस प्रश्न का समाधान कर दिया—"पृथिवी गिरेगी कहाँ पर?" यह प्रश्न ही गलत है। पृथिवी कहाँ गिरे? पृथिवी के लिये पतन और उत्थान का कोई अर्थ नहीं है। अनन्त देश का ऊपर और नीचे कैसा? यह दोनो तो आपेक्षिक है। जो अनन्त है वह कहाँ जायगा और कहाँ से आयेगा? जब मनुष्य भूत और भविष्य की चिन्ता का―उसका क्या क्या होगा, इस चिन्ता का―त्याग कर देता है, जब वह देह को सीमाबद्ध और इसीलिये उत्पत्ति-विनाश- शील जान कर देहाभिमान का त्याग कर देता है, उसी समय वह एक उच्चतर अवस्था में पहुँच जाता है। देह भी आत्मा नहीं, मन भी आत्मा नहीं; कारण इनका ह्रास और वृद्धि होती है। केवल जड़ जगत् से अतीत आत्मा ही अनन्त काल तक रह सकता है। शरीर और मन प्रतिनियत परिवर्तनशील है। ये दोनो ही कई एक परि- वर्तनशील घटनाश्रेणियो के नाममात्र है। ये मानो एक नदी के समान है जिसका प्रत्येक जलपरमाणु नियत, चञ्चल है। तब भी हम देखते है कि यह वही एक नदी है। इस देह का प्रत्येक परमाणु नियतपरिणामशील है; कोई भी व्यक्ति कुछ क्षण को भी एक ही रूप का शरीर नहीं रख सकता। तथापि मन के ऊपर एक प्रकार का संस्कार बैठ गया है जिसके कारण हम इसे एक ही शरीर कह कर विवेचना करते हैं। मन के सम्बन्ध में भी यही बात है। क्षण में सुखी, क्षण में दुःखी, क्षण में सवल, क्षण में दुर्बल―नियत परिणामशील भँवर के समान। अतएव मन भी आत्मा नहीं हो सकता, आत्मा तो अनन्त है। परिवर्तन केवल ससीम वस्तु में ही सम्भव है। अनन्त में किसी प्रकार का