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ज्ञानयोग

अनुराग-घृणा-संघर्षण, उत्तम वा अधम विवेचन,
इस द्वन्द्व भाव को त्यागो, है त्याज्य उभय आलम्बन।
आदर गुलाम पाये या कोडो की मारे खाए,
वह सदा गुलाम रहेगा कालिख का तिलक लगाए;
स्वातंत्र्य किसे कहते है―वह जान नहीं है पाता
स्वाधीन सौख्य जीवन का―उसकी न समझ में आता
त्यागो संन्यासी, त्यागो तुम द्वन्द्व भाव को सत्वर,
तोड़ो श्रृंखल को तोड़ो, गाओ यह गान निरन्तर―

ॐ तत् सत् ॐ


घन अन्धकार हट जाए, मिट जाए घोर महातम,
जो मृगमरीचिका जैसा करता रहता बुद्धि-भ्रम;
मोहक भ्रामक आकर्षण अपनी है चमक दिखाता,
तम से घनतर तम में वह जीवात्मा को ले जाता।
जीवन की यह मृग-तृष्णा बढ़ती अनवरत निरन्तर,
मेटो तुम इसे सदा को पीयूष ज्ञान का पीकर।
यह तम अपनी डोरी में जीवात्मा-पशु को कसकर
खींचा करता बलपूर्वक दो जन्म-मरण-छोरों पर।
जिसने अपने को जीता, उसने जय पायी सब पर―
यह तथ्य जान फन्दे में पड़ना मत बुद्धि गवाँ कर।
बोलो सन्यासी, बोलो हे वीर्यवान बलशाली,
सानन्द गीत यह गाओ, छेड़ो यह तान निराली―

ॐ तत् सत् ॐ


"अपने अपने कर्मों का फल भोग जगत् में निश्चित"
कहते है सब, "कारण पर है सभी कार्य अवलम्बित;