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ज्ञानयोग

है―इसीका प्रकाश करो। तुम्हें पवित्र होना नहीं पड़ेगा―तुम पवित्र स्वरूप ही हो। तुम्हें पूर्ण स्वरूप होना नहीं पड़ेगा―तुम पूर्ण स्वरूप ही हो। समस्त प्रकृति ही पर्दे के समान अपने अन्दर रहने वाले सत्य को ढांके रहती है। तुम जो कुछ भी अच्छा विचार या अच्छा कार्य करते हो वह मानों केवल उस आवरण को धीरे-धीरे छिन्न करते हो और वही मानों प्रकृति के अन्दर स्थित शुद्ध स्वरूप अनन्त ईश्वर प्रकाशित हो रहा है। यही मनुष्य का सारा इतिहास है। यही आवरण जितना ही सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता जाता है, उतना ही प्रकृति के अन्दर स्थित प्रकाश भी अपने स्वभाव के अनुसार ही क्रमशः अधिकाधिक दीप्त होता जाता है, क्योंकि उसका स्वभाव ही इसी प्रकार दीप्त होना है। उसको जाना नहीं जा सकता, हम सब उसको जानने की वृथा ही चेष्टा करते हैं। यदि वह ज्ञेय होता तो उसका स्वभाव ही बदल जाता, कारण वह नित्यज्ञाता है। और ज्ञान तो ससीम है; किसी वस्तु का ज्ञान-लाभ करने के लिये उसकी ज्ञेय वस्तु के रूप में, विषय के रूप में चिन्ता करनी होती है। वह तो सकल वस्तुओं का ज्ञाता स्वरूप है, सब विषयो का विषयी स्वरूप है, इस विश्वब्रह्माण्ड का साक्षी स्वरूप है, तुम्हारा ही आत्मा स्वरूप है। ज्ञान तो मानो एक नीचे की अवस्था है―केवल एक अवनत भाव है। हम ही वह आत्मा हैं, फिर इसे हम किस प्रकार जानेंगे? प्रत्येक व्यक्ति वह आत्मा है और विभिन्न उपायो से इसी आत्मा को जीवन में प्रकाशित करने की सभी चेष्टा कर रहे है; यदि ऐसा न होता तो ये सब नीतिप्रणालियाँ कहाँ से आती? सभी नीति- प्रणालियो का तात्पर्य क्या है? सभी नीतिप्रणालियों में एक ही भाव भिन्न-भिन्न रूप से प्रकाशित हुआ है―दूसरों का उपकार करना।