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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/७

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संन्यासी का गीत

फल अशुभ अशुभ कर्मों के, शुभ कर्मों के हैं शुभ फल,
किसकी सामर्थ्य बदल दे, यह नियम अटल औ' अविचल?
इस मृत्युलोक में जो भी करता है तनु को धारण,
बन्धन उसके अंगों का होता नैसर्गिक भूषण।"
यह सच है, किन्तु परे जो गुण नाम-रूप से रहता
वह नित्य मुक्त आत्मा है, स्वच्छन्द सदैव विचरता।
'तत् त्वमसि'―वही तो तुम हो, यह ज्ञान करो हृदयांकित,
फिर क्या चिन्ता संन्यासी, सानन्द करो उद्धोषित―

ॐ तत् सत् ॐ


क्या मर्म सत्य का, इसको वे कुछ भी समझ न पाते,
सुत बन्धु पिता माता के स्वप्नो में जो मदमाते।
आत्मा अतीत नातो से, वह जन्म-मरण से विरहित,
वह लिंग-भेद से ऊपर, सुख-दुख-भावो से अविजित।
वह पिता कहाँ किसका है, किसका सुत किसकी माता?
वह शत्रु मित्र किसका है, उसका किससे क्या नाता?
जो एक, सर्वमय शाश्वत, जिसका जोड़ा न कहीं है,
जिसके अभाव में कोई सम्भव अस्तित्व नहीं है,
'तत् त्वमसि'―वही तो तुम हो, समझो हे संन्यासीवर,
अतएव उठो, गाओ तुम, गाओ यह गान निरन्तर―

ॐ तत् सत् ॐ


चिर मुक्त विज्ञ आत्मा है, वह अद्वितीय, वह अतुलित,
अक्लेद अशोष्य निरामय, वह नाम-रूप-गुण-विरहित,