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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

द्वैतवादी जब कहते हैं कि कोई अपरिणामी पदार्थ है तब वह ठीक ही कहते हैं; किन्तु वह शरीर और मन से बिलकुल अतीत है, शरीर और मन से बिलकुल पृथक् है, यह कहना भूल है। बौद्ध लोग जो कहते है कि समुदय जगत् केवल परिणाम-प्रवाह मात्र है यह बात भी सत्य है; कारण, जब तक मैं जगत् से पृथक हूँ; जब तक मैं अपने अतिरिक्त और सभी कुछ देख रहा हूँ, मोटी बात है कि जब तक द्वैतभाव रहेगा; तब तक यह जगत् परिणामशील ही प्रतीत होगा। किन्तु वास्तविक बात यह है कि यह जगत् परिणामी भी है और अपरिणामी भी। आत्मा, मन और शरीर ये तीनो पृथक् वस्तुएँ नहीं है वरञ्च एक ही है। एक ही वस्तु कभी देह, कभी मन और कभी देह और मन से अतीत आत्मा प्रतीत होती है। जो शरीर की ओर देखते हैं व मन तक को भी नहीं देख सकते; जो मन को देखते है वे आत्मा को नहीं देख पाते; और जो आत्मा को देखते है उनके लिये शरीर और मन दोनो न जाने कहाँ चले जाते है! जो लोग केवल गति देखते है वे सम्पूर्ण स्थिर भाव को नहीं देख पाते, और जो इस सम्पूर्ण स्थिर भाव को देख पाते है उनके निकट गति न जाने कहाँ चली जाती है। सर्प में रज्जु का भ्रम हुआ। जो व्यक्ति रज्जु में सर्प ही देखता है उसके लिये रज्जु कहाँ चली जाती है, और जब भ्रान्ति दूर होकर वह व्यक्ति रज्जु ही देखता है तो फिर उसके लिये सर्प नहीं रहता।

तो हमने देखा कि वस्तु एक ही है और वही एक नाना रूप से प्रतीत होती है। इसको आत्मा कहे या वस्तु कहे या अन्य कुछ नाम दे, जगत् में एकमात्र इसी का अस्तित्व है। अद्वैवादियो की