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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप


मिला है उन्हे जीवन्मुक्त के नाम से पुकारते है। यही जीवन्मुक्त अवस्था लाभ करना वेदान्ती का लक्ष्य है।

एक बार मैं पश्चिमी भारत मे हिन्दमहासागर के तटवर्ती मरु-- देश में भ्रमण कर रहा था। बहुत दिन तक निरन्तर पैदल भ्रमण करता रहा। किन्तु यह देख कर मुझे महान् आश्चर्य होता था कि चारों ओर सुन्दर सुन्दर झीलें हैं और झीलों के चारो ओर वृक्ष-लताएँ है और उनकी सुखद शीतल छाया जल मे पड़ रही है। कैसे अद्भुत दृश्य थे वे! और लोग इसे रेगिस्तान कहते है! एक मास तक वहाँ मैं घूमता रहा और प्रतिदिन ही मुझे वे सुन्दर दृश्य दिखाई दिये। एक दिन मुझे बड़ी प्यास लग रही थी और मैने सोचा कि वहाँ एक झील पर जाकर प्यास बुझा लूॅ। अतएव मै इन सुन्दर निर्मल तालाबों में से एक की ओर अग्रसर हुआ। जैसे ही मैं वहाॅ पहुँचा कि वह सब दृश्य न जाने कहाँ लुप्त हो गया। और तब मेरे मन मे यह ज्ञान हुआ कि 'जीवन भर जिस मरीचिका की बात पुस्तकों में पढ़ता रहा हूँ यह वही मरीचिका है। और उसके साथ साथ यह ज्ञान भी हुआ कि 'इस पिछले मास भर प्रतिदिन मै मरीचिका ही देखता रहा हूॅ, किन्तु मैने कभी न जाना कि यह मरीचिका है।' इसके बाद फिर दूसरे दिन मैने चलना प्रारम्भ किया। फिर वही सुन्दर दृश्य दिखने लगे, किन्तु उसके साथ साथ यह ज्ञान भी होने लगा कि यह सममुच झील नहीं है, मरीचिका है। इस जगत् के सम्बन्ध में भी यही बात है। हम प्रति दिन, प्रति मास, प्रति वर्ष इस जगत् रूपी मरुस्थल मे भ्रमण कर रहे है, किन्तु मरीचिका को मरीचिका नहीं समझ पाते हैं। एक दिन यह मरीचिका अदृश्य हो जायगी, किन्तु