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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप


बोल नहीं सकते और श्वास-प्रश्वास भी नहीं ले सकते। किन्तु फिर कुछ देर विचार करने पर यह भी प्रमाणित हो जाता है कि हम एक यन्त्र के समान है, मुक्त नहीं। तब कौन सी बात सत्य मानी जाय ? "हम मुक्त है" यह धारणा ही क्या-भ्रमात्मक है? एक पक्ष कहता है कि 'मै मुक्त स्वभाव हूॅ' यह धारणा भ्रमात्मक है, दूसरा पक्ष कहता है कि 'मै बद्धभावापन्न हूॅ' यह धारणा ही भ्रमात्मक है। तब यह दो प्रकार की अनुभूति कहाॅ से आती है? मनुष्य वास्तव मे मुक्त है; मनुष्य परमार्थतः जो है वह मुक्त के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता, किन्तु जैसे ही वह माया के जगत् मे आता है, जैसे ही वह नामरूप के भीतर पड़ जाता है, वैसे ही वह बद्ध हो जाता है। 'स्वाधीन इच्छा' यह कहना ही भूल है। इच्छा कभी स्वाधीन हो ही नही सकती। कैसे होगी? जो प्रकृत मनुष्य है वह जब बद्ध हो जाता है तभी उसकी इच्छा की उत्पत्तिः होती है, उससे पहले नहीं।

मनुष्य की इच्छा बद्ध है, किन्तु जो इसका मूल है वह तो सदा ही मुक्त है। अतएव बन्धन की दशा मे भी, चाहे वह मनुष्य-जीवन हो, चाहे देव-जीवन हो, चाहे स्वर्ग मे हो, चाहे पृथिवी पर, फिर भी हमारे अन्दर उस विधिप्रदत्त अधिकार स्वरूप स्वतन्त्रता या मुक्ति की स्मृति रहती ही है। और जानबूझ कर या अनजाने ही हम सब इस मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे है। मनुष्य जब मुक्त हो जाता है तब किस प्रकार नियम मे बद्ध रह सकता है? जगत् का कोई भी नियम उसे बाॅध नही सकता। कारण, यह विश्वब्रह्माण्ड उसीका तो है। और वह उस समय समुदय विश्वब्रह्माण्डस्वरूप ही