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यह गली बिकाऊ नहीं/99
 

वह कोई उत्तर नहीं देकर मुस्करायी।

"कहीं बाहर जा रही हो क्या?"

"हाँ ! आपको भी साथ ले जाने के विचार से आयी हूँ !"

"मुझे ? मुझे क्यों ? साथ ले जाकर आधी दूर जाने के बाद किसी की कार में बैठकर चल पड़ने के लिए?"

"आपको मुझ पर जरा-सा भी तरस नहीं आता क्या? बार-बार उसी बात की सूई चुभाते हैं !"

"जो होता है, सो कहता हूँ !"

"बार-बार उलाहना देते हुए आपको न जाने क्या मज़ा आता है ?"

"वहीं, जो तुम्हें तंग करने से आता है !

"कहते हैं कि कसूर माफ़ करना भलमनसाहत हैं !"

"समझ लो कि वह भलमनसाहत मुझमें नहीं है !"

"कैसे मान लूं ? यों हठ न पकड़िये । मैं प्रेम से बुला रही हूँ। इनकार कर मेरा जी मत दुखाइये चलिये..."

"उफ़ ! इन औरतों से पार पाना..."

".."बड़ा मुश्किल है !" उसने उसका अधूरा वाक्य पूरा किया।

मुत्तुकुमरन् हँसता हुआ उठा और कुर्ता पहनकर उसके साथ चल पड़ा। द्वार की सीढ़ियां उतरते हुए उसने पूछा, "कहाँ ले जा रही हो?"

"चुपचाप मेरे साथ चलते चलिये तो पता चलेगा।" उस पर अपना रोब जमाते हुए उसने कहा।

दूकान के सामने उतरने के बाद ही, उसे पता चला कि उसे वह कपड़े की दूकान में लायी है।

"ओहो ! अब तो हालत यहाँ तक बढ़ गयी कि जोर-जबरदस्ती खींचकर मुझे कपड़े की दूकान तक लाओ ! भगवान जाने, आगे क्या हाल होगा!" मुत्तुकुमरन् ने दिल्लगी की। माधवी को वह दिल्लंगी अच्छी लगी।

"आप देखकर जो पसन्द करेंगे, उन्हें मैं आँख मूंदकर ले लूंगी।"

"साड़ी पहननेवाला मैं नहीं हूँ ! पहननेवालों को ही अपनी पसंद की लेनी चाहिए!"

"आपको पसंद मेरी पसंद है !"

दूकानवालों ने बड़े तपाक से उनका स्वागत किया।

"गोपाल साहब ने फ़ोन किया था। हम तब से आँखें बिछाये आपकी राह देखे खड़े हैं !" दूकान के मालिक ने बत्तीसी दिखाते हुए कहा।

नीचे बिछी नयी कालीन पर ढेर सारी साड़ियों का अंबार-सा लगा था। मुत्तुकुमरन और माधवी कालीन पर बैठे थे।