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102/यह गली बिकाऊ नहीं
 

"वैसा हुआ होता तो तुम क्या करती? यही मैं पूछना चाहता हूँ !"

"वैसा हुआ होता तो मेरे चेहरे पर उल्लास की रेखा तक फूटी नहीं होती।

एक तरह से मैं जीवित लाश ही दीख पड़ती।"

"जो भी कहो, गोपाल के न आने से तुम्हें निराशा ही हुई है ।"

"जैसा आप समझें!"

"मेरे आने पर तुम्हारा क्या बड़प्पन रहा ? गोपाल जैसा 'स्टेटस्' वाला कलाकार आता तो तुम्हारा बड़प्पन बढ़ता और अड़ोस-पड़ोस के लोग भी गर्व का अनुभव करते।"

"आप चुप न रहकर मेरा मुंह खुलवाना चाहते हैं। गोपाल जी के न आने का मुझे ज़रूर दुख हुआ है । पर उनके न आने के दुख को आपके आने के सुख ने कोसों दूर भगा दिया है !"

"मुझे खुश करने के लिए यों ही कह रही हो !"

"आप मेरे प्रेम पर सन्देह करें तो निश्चय ही आपका भला नहीं होगा।"

"शाप देती हो मुझे?"

"मैं शाप देनेवाली कौन होती हूँ? आप मेरे साथ जा रहे हैं केवल इसी आश्वासन पर मैं इस यात्रा में सम्मिलित हो रही हूँ !"

"नाराज न होओ। यों ही तुम्हें उकसाकर तमाशा देखना चाहता था।"

मुत्तुकुमरन् ने उसकी आँखों में आँखें डालकर देखा तो उसे यह पूरा विश्वास हो गया कि सच ही वह उसपर मन-प्राण न्योछावर कर चुकी है । दावत से बड़ा उपहार पाकर खुश कौन नहीं होता ? खुशी से वह दावत खाने बैठा।



पन्द्रह
 

तीन, दो और एक गिन-गिनकर आखिर वह दिन भी आ ही गया। दोपहर को एक बजे उड़ान थी। सिंगापुर जाने वाले एयर इण्डिया के बोइंग विमान में यात्रा का प्रबंध हुआ था। अब्दुल्ला ने आग्रह किया था कि पहले पिनांग में ही नाटक प्रदर्शन होना चाहिए। इसलिए सिंगापुर में उतरने के बाद, उन तीनों को हवाई जहाज बदलकर पिनांग जाना था। उन्हें लिवा ले जाने के लिए स्वयं अब्दुल्ला 'सिंगापुर हवाई अड्डे पर उपस्थित होनेवाले थे ।

यात्रा के दिन गोपाल बहुत-बहुत खुश था। माधवी. और मुत्तुकुमरन् से किसी प्रकार की तकरार या तनाव न बढ़ाकर सलीके से पेश आ रहा था।