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106/यह गली बिकाऊ नहीं
 

अब्दुल्ला जिस तरह माधवी और गोपाल से पेश आये, वैसे मुत्तुकुमरन के साथ पेश नहीं आये। हो सकता है , इसके मूल में मद्रास में उनके साथ हुई घटनाएँ हों। माधवी से भुत्तुकुमरन् ने कहा, “मुझे डर लग रहा है कि भीड़ में मैं कहीं खो न जाऊँ और तुम लोग भी इस चहल-पहल में मुझे भूल न जाओ। फिर मैं इस नये देश में क्या कर पाऊँगा?"

"वैसा कुछ नहीं होगा। मेरी आँखें चोरी-छिपे लेकिन हमेशा आपकी निगरानी कर रही हैं !"

"जब सबकी आँखें तुम्हारी ओर लगी हैं, तब तुम मुझे कहाँ से देख पाओगी?"

"मैं तो देख पा रही हूँ। पाओगी का सवाल ही नहीं उठता। न जाने आपने मुझपर कौन-सा टोना-टोटका कर दिया कि मैं आपके सिवा और किसी को देख ही नहीं पा रही !"

माधवी की बात सुनकर वह फूला न समाया।

सिंगापुर के हवाई अड्डे के 'लाउंज' में पौन घंटा बिताने के बाद, वे एक-दूसरे ह्वाई जहाज पर पिनांग के लिए रवाना हुए। पिनांग जानेवाले 'मलेशियन एयरवेज़' के हवाई जहाज पर अब्दुल्ला और गोपाल केबिन के पासवाली अगली सीट पर अकेले बैठकर बातें करने लग गये। उनके चार सीट पीछे मुत्तुकुमरन् और माधवी भी साथ बैठकर बातें करने लगे । जहाज पर कोई विशेष भीड़ नहीं थी।

माधवी बड़े प्यार से बोली, "जहाँ देखो, इस देश में, हरियाली-ही-हरियाली नज़र आती है ! यह जगह सचमुच बहुत अच्छी है !"

"हाँ, यह देश ही क्यों ? इस देश में तुम भी इतनी प्यारी लग रही हो कि बिलकुल परी-सी लगती हो !

"आम तो खुशामद कर रहे हैं।"

"तभी तो कुछ मिलेगा?"

सचमुच, माधवी का दाहिना हाथ उसकी पीठ के पीछे से माला की तरह बढ़ा और उसका दाहिना कंधा सहलाने लगा। "बड़ा सुख मिल रहा है !"

"यह हवाई जहाज़ है। आपका 'आउट हाउस' नहीं। अपनी मर्जी यहाँ नहीं चल सकती "तुम्हारी बातों से तो ऐसा लगता है कि जब कभी तुम 'आउट हाउस में भायीं, मैंने अपनी मर्जी पूरी कर ली !"

"सोबा ! तोबा ! इसमें मेरी मर्जी भी शामिल हैं, मेरे राजा !" माधवी ने उसके कानों में फुसफुसाया।