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यह गली बिकाऊ नहीं/107
 

मुत्तकुमरन् ने उससे पूछा, "जो समुद्री जहाज़ से चले थे, वे आज पिनांग पहुँच गये होंगे न?"

"नहीं, कल सवेरे ही पहुँचेंगे । कल उनका पूरा रेस्ट' है। पहले हम तीनों का प्रोग्राम है-'साइट सीइंग' का ! पहला नाटक परसों है।"

"कहाँ-कहाँ नाटक खेलने का आयोजन हुआ है ?"

"पहले के चार दिन पिनांग में नाटक का मंचन है । बाद के दो दिन ईप्पो में हैं। उसके बाद एक हफ्ते के लिए क्वालालम्पुर में है। बाद के दो दिनों में फिर 'साइट सीइंग', रेडियो और टेलिविज़न के लिए साक्षात्कार बगैरह हैं। अंतिम सप्ताह सिंगापुर में नाटक है। फिर वहीं से मद्रास के लिए हवाई उड़ान है।"

माधवी ने उसे पूरा कार्य-क्रम बता दिया। मुत्तुकुमरन् को उसके साथ बातें करते रहने का जी हुआ तो बोला, "आज तुम्हारे होंठ इतने लाल क्यों हैं ?"

"बोलो न!"

"इसलिए कि आपसे मुझे बड़ा प्यार है !"

"गुस्से में भी औरतों के होंठ लाल हो जाते हैं न ?"

"हाँ हाँ ! हो जाते हैं। थोड़ी देर पहले सिंगापुर के हवाई अड्डे पर आप जैसे महान व्यक्ति का स्वागत न कर, हम जैसे नाचीज़ खिलाड़ियों का जब अब्दुल्ला ने दौड़-दौड़कर और सिर पर उठाकर स्वागत किया था, तब मुझे इस दुनिया पर बड़ा गुस्सा आ रहा था।"

"तुम्हें गुस्सा आया होगा; पर मुझे नहीं। मेरा दिल तो उस वक्त बल्लियों उछलने लगा था। हाँ, मुझे इस बात से अवश्य गर्व ही हो रहा था कि मेरी माधवी का कितना मान-सम्मान हो रहा है। उतनी बड़ी भीड़ में, महल जैसे हवाई अड्डे के 'लाउंज' में, हाथों में भारी-भरकम फूलों की मालाएँ लिये हुए तुम तितली की तरह खड़ी थी और मेरा दिल बुलबुल की तरह फुदक रहा था !"

"अगल-बग़ल में न जाने कौन खड़े थे ! और मेरा दिल तड़प रहा था कि आप खड़े हों तो कितना अच्छा रहे ?"

"हाँ, मुझे इसका पता है ! क्योंकि अब हम दो दिल नहीं, एक-दिल हैं !"

"आपके मुंह से यह सब सुनते हुए बड़ी खुशी हो रही है ! जैसे वसिष्ठ के मुंह से ब्रह्मर्षि सुनना ।”

"क्या कहती हो. "आपके मुंह से आख़िर निकल गया न कि हम दोनों एक हैं !"

मुत्तुकुमरन् के मन में आया कि बातें बंदकर माधवी को आलिंगन में भरकर तुम?" एक हो जाये।