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108/यह गली बिकाऊ नहीं
 

इसी वक्त गोपाल और अब्दुल्ला वहाँ आये ।

"माधवी ! अब्दुल्ला साहब तुमसे कुछ कहना चाहते हैं। जरा उस तरफ़ अगली 'सीट' पर चली जाओ न !” गोपाल ने आँखें मटकाकर कहा तो माधवी की आँखें आप-ही-आप मुत्तुकुमरन पर ठहर गयीं।

"माफ़ करना उस्ताद !" गोपाल ने मुत्तकुमरन् से ही प्रार्थना की, मानो उसकी धरोहर को एक पल के लिए माँग रहा हो । मुत्तुकुमरन् को आश्चर्य हो रहा था कि वह उससे क्यों अनुमति चाह रहा है ? साथ ही, उसका आँखें मटकाकर माधवी को बुलाने पर क्रोध भी आ रहा था।

गोपाल के कहने पर भी, माधवी मुत्तुकुमरन को देखती हुई यों बैठी रही कि बिना उसकी अनुमति के, उठने का नाम नहीं लेगी।

अब्दुल्ला का चेहरा कठोर हो गया। वह भारी आवाज में अंग्रेज़ी में चीखे, "हू इज ही टु ऑर्डर हर ? ह्वाय आर यू अननेसेसरिली आस्किग हिम् ?"

"जाओ ! अंग्रेजी में वह कुछ चिल्ला रहा है ।" मुत्तुकुमरन ने माधवी के कानों में कहा।"

अगले क्षण माधवी ने जो किया, उसे देखकर मुत्तुकुमरन् को ही विस्मय होने लगा।

"आप जाइए ! मैं थोड़ी देर में वहाँ आती हूँ ! इनसे जो बातें हो रही थीं, उन्हें पूरा करके आऊँगी !"-माधवी ने अब्दुल्ला को वहीं से उत्तर दिया।

गोपाल का चेहरा कटु और कठोर हो गया । दोनों 'केबिन' की ओर बढ़े और पहली कतार की अपनी सीटों पर गये तो मुत्तुकुमरन् बोला, "हो आओ नः ! बिदेश आकर व्यर्थ की बला मोल क्यों ले रही हो ?"

माधवी के होंठ फड़क उठे। बोली, "मैं चली गयी होती । पर उसने अंग्रेजी में क्या कहा, मालूम?"

"कहो तो सही।"

"आपके बारे में गोपाल से उसने कहा कि इसे हुक्म देनेवाला यह कौन होता है ? उससे जाकर क्यों पूछते हो?"

"उसने तो कुछ ग़लत नहीं कहा । ठीक ही तो. कहा उसके होंठ आरक्त पुष्प बनकर फड़कने लगे । आँखों में आँसू भर आये। दोनों का भेद यद्यपि मुत्तुकुमरन् ने कौतुक के लिए किया था, फिर भी माधवी उसे बर्दाश्त नहीं कर सकी।

अब्दुल्ला के पास नहीं जाऊँगी, नहीं जाऊँगी।" कहकर फड़कते होंठों वह हाथ बांधे बैठ गयी।

हवाई जहाज किसी अड्डे पर उतरा। नीचे ज़मीन पर 'कोत्तपारु एयरपोर्ट' लिखा हुआ दिखायी दिया।