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116/यह गली बिकाऊ नहीं
 

पर ईर्ष्या भरी तिरछी दृष्टि यों फेरी, मानो कोई हाथी झुकी आँखों से नीचे देखता हो।

"एकाएक कहाँ गुम हो गये? कॉकटेल मिक्स करके देखा तो तुम दोनों अचानक गायब हो गये थे। पार्क गये थे क्या?"

"हाँ, ये जरा टहलने को साथ बुला रहे थे तो चल पड़े।" माधवी ने जान- बूझकर 'ये' पर ज़ोर देकर कहा ।

मुत्तुकुमरन् तो उनके सामने ठहरना नहीं चाहता था ।वह तेजी से डग भरता हाल में चला गया।

माधवी को रोकने के विचार से अब्दुल्ला ने बात जारी की-"पार्क जाने की बात कही होती तो हम भी आये होते।"

"आप और गोपाल साहब कॉकटेल में काफी गहरे डूबे थे; इसलिए साथ आयेंगे या नहीं आयेंगे-सोचकर हम चले गये।"

"कहा होता तो किसी को साथ भेजा होता।"

"जब लेखक साथ रहे तो और किसी को व्यर्थ में साथ करने की क्या जरूरत थी?"

"आपको कोई अच्छी 'सेंट' चाहिए तो कहिये ! मेरे पास बढ़िया-से-बढ़िया सेंट हैं ।" उनकी बातों में इन की बु नहीं; वासना की बू थी। माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसके मन की जानकर मन-ही-मन में हँस पड़ी।

"चानल नंबर फ़ाइव, चादरा, इवनिंग इन पेरिस-जो चाहिए, कहिए। दूंगा। मुझे मालूम हैं, गोपाल साहब ने बताया है कि आपको सुगंधित चीजें बहुत पसंद हैं।"

"जी नहीं ! अब मुझे किसी की कोई जरूरत नहीं। जरूरत पड़ी तो अवश्य मांग लूंगी; जरा भी संकोच नहीं करूंगी।" माधवी ने कहा। उसका जी अब्दुल्ला की बातों और दृष्टि से बचकर भागने का कर रहा था।

वह जल्दी-से-जल्दी अपने कमरे में जाकर सोना चाहती थी। अब्दुल्ला तो मानो उससे गिड़गिड़ाने ही लग गये, “थोड़ी देर बैठो न माधवी ! अभी से ही नींद आ गयी है क्या ?"

"हाँ, सवेरे मिल लेंगे! गुड नाइट !" कहकर माधवी अपने कमरे में गयी और छिटकनी लगाकर उसने चैन की सांस ली।

सबेरे उठकर 'ब्रेक फास्ट' से निवृत्त होकर वे सब पिनरंग हिल से नीचे उतर पड़े। उसी दिन, मद्रास से जहाज पर चले कलाकार, कर्मचारी और सीन-सेटिंग जैसे नाटक के सामान पिनांग के बंदरगाह के किनारे लगनेवाले थे। उन्हें लिवा लाने के लिए उन्हें जाना था।